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________________ वर्तमान जैन-जाति में अवनति दशा होने का मुख्य कारण यही है कि उसमें सद्ज्ञान और उत्तम शिक्षण का अभाव है, और कहीं किसी में कुछ ज्ञान पाया भी जाता है तो वह मात्सर्य से अच्छादित होने से उसका प्रभाव नहीं बढ़ता। क्योंकि जैन शास्त्रानुसार सद्ज्ञान वही है जिस से वैर विरोध का सर्वथा नाश हो कर मैत्री भावना का उन्दव हो। यदि ज्ञान प्राप्त होने पर भी असभ्य आदतें न मिटी तो वह ज्ञान नहीं किन्तु अज्ञान ही है। उत्तम ज्ञान के उदय से उत्तम-२ सद्गुण प्रगट होते हैं। कहा भी है कि ज्ञान उदय जिनके घट अन्दर, ज्योति जगी मति होत न मैली। बाहिर दृष्टि मिटी तिन के हिय, आतमध्यान कला विधि फैली।। जे जड़ चेतन भिन्न लखे, सुविवेक लिये परखे गुण थैली। ते जग में परमारथ जानि, गहे रुचि मानि अध्यातम शैली।।१।। भावार्थ-जिनके हृदय में असली ज्ञान का उदय होता है उनके हृदयभवन में परापवाद, परदोषनिरीक्षण आदि दोषों से परिवेष्टितमलिन मति का नाश हो कर सुबुद्धि और दिव्यज्ञान ज्योति का प्रकाश होता है, बाह्यदृष्टि मिट कर सर्व दोषविनाशिकाअध्यात्मकला की विधि विस्तृत होती है, ज्ञानोदय से मनुष्य जड़ और चेतन की भिन्नता दिखाने वाले सद्विवेक को प्राप्त कर ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि सद्गुणों की थैली परीक्षा पूर्वक ग्रहण करते हैं और संसार में परमार्थ (तत्त्व) वस्तु को जान कर शुद्ध रुचि से अध्यात्म शैली को प्राप्त करते हैं। इसलिए महानुभावो! परदोसं निराकिच्चा, न विरुज्झेज्ज केण वि। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो।। भावार्थ मन वचन और काया से परदोषों को अलग कर किसी के साथ वैर विरोध न करो क्योंकि परदोष बोलने और विरोधभाव रखने से अन्त में दुर्गति का भाजन बनना पड़ता है। १०४ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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