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________________ तिर्यग्गति का रोधक और सर्व दुःखविनाशक शान्ति महागुण ही है, इसके अनुष से अनेक अपरिमित सुख लीला प्राप्त होती है। और मनुष्य संसार में परिपूर्ण योग्यता प्राप्त कर सब का पूज्य बन जाता है। शान्तस्वभाव से 'प्रसन्नचन्द्र' राजर्षी अष्टकर्म खपा कर मोक्ष सुख को प्राप्त हुए। 'दमसार' मुनि इसी शान्तभावना के बल से केवलज्ञान के अधिकारी बने हैं, और शान्तस्वभाव से ही 'अच्चंकारीभट्टा' इन्द्रादिकों की भी प्रशंसनीय हुई और स्वर्गसुखविलासिनी बनी है। शान्तरस में लवलीन होकर 'चण्डरुद्राचार्य' अनेक भवसंचित पापकों का क्षय कर केवलश्री और मुक्तिरमणी के स्वामी बने हैं। क्षमा, सदविचार, सदाचार सेवन करने से कषायाग्नि शान्त होती है; और परनिन्दा, ईर्षा, कुत्सित व्यवहार, ममत्व, अपनी प्रशंसा व दूसरों का अपमान, परस्त्रीगमन, परधनहरण और वाचालता आदि दोषों के आचरण करने से कषायाग्नि बढ़ती है। इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को परम शान्तगुण धारण कर कषायाग्नि को उपशान्त करने में ही सदा प्रयत्नशील बनना और परमात्मा वीर प्रभु के सदुपदेशों को आचरण कर सद्गुण संगृहीत करना चाहिए। संसार में गुरुत्व की चाहना हो तो परदोषों का देखना सर्वथा छोड़ो ... *जइ इच्छह गुरुअत्तं, तिहुअणमज्झम्मि अप्पणो नियमा। ता सव्वपयत्तेणं, परदोसविवज्जणं कुणह।।१२।। शब्दार्थ-(जइ) जो तुम लोग (तिहुअणमज्झम्मि) तीनों भुवन के मध्य में (अप्पणो) अपना (गुरुअत्तं) बड़प्पन (इच्छह) चाहते हो (ता) तो (नियमा) निश्चय से (सवपयत्तेणं) सर्व प्रयत्न से (परदोसविवजणं) परदोषों का वर्जन (कुणह) करो। * यदीच्छथ गुरुकत्वं, त्रिभुवनमध्ये आत्मनो नियमात् । तर्हि सर्वप्रयत्नेन, परदोषविवर्जनं कुरुथ । १२) श्री गुणानुरागकुलक ६६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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