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________________ माया मेंढक शृंग समान, और लोभ नगर खाल (खात) के कीचड़ समान है। यह कषाय उत्कर्ष से एक वर्ष पर्यन्त रहता है, और तिर्यग्गति का निबंधक, एवं व्रतोदय का रोधक है। ३. प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया और लोभ। 'प्रत्याख्यानी' उसको कहते हैं जिस से चारित्र धर्म का नाश हो जाय। प्रत्याख्यानी क्रोध रेत की रेखा समान, मान काष्ठस्तंभ समान, माया-गोमूत्र समान और लोभ गाड़ी के खंजन (कोटा) समान है। इसकी स्थिति उत्कृष्ट से चार महीने की है और मरकर मनुष्य गति में जाता है। ४. संज्वलनीय-क्रोध, मान, माया और लोभ । "संज्वलनीय' उसको कहते हैं जिस में परीषह और उपसर्ग-आपड़ने पर जो साधुओं को भी औदयिकभाव में स्थापन करता है और जिससे 'यथाख्यातचारित्र' उदय नहीं होने पाता। संज्वलनीय क्रोध- जलरेखा समान, मान-तृणशलाका समान, माया—बाँस की छाल समान, और लोभ हलदी रंग समान है। इसका उदय उत्कर्ष से पन्द्रह दिन तक रहता है, और मरकर प्रायः देवगति में जाता है। परनिन्दा, परस्त्रीगमन, परधनहरण आदि कारणों से क्रोध का उदय, दूसरों को घास, फूस समान तुच्छ समझने से मान का उदय, अपनी पूजा, सत्कार योग्यता की चाहना रखने से माया का उदय, और इन्द्रिय को अपने वश में न करने से लोभ का उदय होता है। इसी सबब से दर्शनसंस्थापक महर्षियों ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और हर्ष, इन छः अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतने के लिए बड़े जोर शोर से उपदेश दिये हैं, क्योंकि ये ही शत्रु प्रत्येक सन्मार्ग के घातक है। जो स्त्री अपनी विवाहिता नहीं है, और न अपने स्वाधीन है, अथवा जिसका एक देश से या सर्वदेश से त्याग कर दिया है, उसके साथ विषयसेवन अथवा विषयसेवन की इच्छा करने को 'काम' कहते हैं। अपने और दूसरों के चित्त को परिताप उपजाने वाले हेतु को 'क्रोध' कहते हैं। खर्च करने योग्य सुस्थान में धन खर्च नहीं करना, मर्यादा से अधिक इच्छा का फैलाना, धन स्त्री कुटुम्ब के ऊपर अत्यन्त आसक्त रहना और अष्टप्रहर यह मेरा यह मेरा करते रहने को 'लोभ' कहते हैं। हठवाद, असदाग्रह और कुयुक्तिमय ६६ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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