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________________ प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात् । वायो: शरीरयन्त्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ।।१०३।। आत्मा के राग-द्वेष-कषायों से प्रेरित होकर मन, वचन, काय के योग रूप प्रयत्न से वायु उत्पन्न होती है। उस प्राणवायु के प्रवर्तन से शरीर रूपी यन्त्र, अर्थात् इन्द्रियाँ एवं शरीर के अन्य अंग उपांग, अपना-अपना काम करते हैं। तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः। त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ।।१०४ ।। मूर्ख बहिरात्मा व्यक्ति इन्द्रियों वाले उस शरीर यन्त्र का आत्मा पर आरोपण करके दुःख भोगता है। इसके विपरीत अन्तरात्मा व्यक्ति अपने ज्ञान के कारण ऐसे आरोपण की कल्पना को त्यागकर परमात्म पद प्राप्त कर लेता है। मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च, संसारदुःखजननीं जननाद्विमुक्तः। ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठ स्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितन्त्रम् ।।१०५ ।। यह समाधितन्त्र परमात्मपद की प्राप्ति का मार्ग है। इसे भली प्रकार हृदयंगम करके और परमात्म भाव में चित्त को स्थिर करके अन्तरात्मा व्यक्ति सांसारिक दु:खों को उत्पन्न करनेवाली उस बुद्धि को त्याग देता है जो शरीर को अपना और आत्मा को पराया समझती है। इस प्रकार वह संसार से मुक्त होता हुआ ज्ञानात्मक सुख को प्राप्त कर लेता है। 30
SR No.023440
Book TitleSamadhi Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2008
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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