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________________ बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तर: । चित्तदोषात्मविभ्रान्ति: परमात्माऽतिनिर्मल: ॥५॥ शरीर आदि को ही आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा है। चित्त के रागद्वेष आदि दोषों और आत्मा के बारे में निर्धान्त रहने वाला अन्तरात्मा है और जो कर्ममल से रहित अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है। निर्मल: केवल: शुद्धो विविक्त: प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ।।६।। परमात्मा कर्ममल से रहित, पूर्ण विशुद्ध, शरीर और कर्म के स्पर्श से परे, इन्द्रियों का स्वामी, अक्षय, परम पद में स्थित, उत्कृष्ट आत्म तत्त्व, ईश्वर और जिन है। बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः। स्फुरित: स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥७॥ बहिरात्मा व्यक्ति इन्द्रियों से परिचालित और आत्मज्ञान से विमुख होता है। इसलिए वह अपने शरीर को ही अपनी आत्मा समझता है। नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम्। तिर्यञ्च तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥८॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनन्तानन्तधीशक्ति: स्वसंवेद्योऽचलस्थिति: ।।६।। मूर्ख बहिरात्मा व्यक्ति मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य, तिर्यञ्च देह में स्थित आत्मा को तिर्यञ्च, देव शरीर में स्थित आत्मा को देव और नारकी देह में स्थित आत्मा को नारकी मानता है। किन्तु तत्त्वत: ऐसा नहीं है। आत्मा तो अपने आप में अनन्तानन्त ज्ञान और शक्ति की धारक है। वह अचल है और खुद अपने ही द्वारा अनुभव किए जाने योग्य है। स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्। परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति ।।१०।। मूर्ख बहिरात्मा व्यक्ति अपने भीतर आत्मा को अधिष्ठित करने वाली अन्य व्यक्ति ___- 10
SR No.023440
Book TitleSamadhi Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2008
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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