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________________ ५१ । - तत्त्वोपनिषद्मयेदमभ्यूहितमित्यदोषलं, न शास्तुरेतन्मतमित्यपोह्यते । तथापि तच्छिष्यतयैव रम्यते, कृतज्ञतैषा जलताऽल्पसत्त्वता।।२५।। - मतमिदं मयाभ्यूहितम् - अभ्यस्तम् - तर्कितम् - स्वीकृतं वेति - तस्मादिदमदोषलं - दोषं लाति - गृह्णातीति दोषलं सदोषमित्यर्थः, न तथेत्यदोषलं निर्दोषमिति हृदयम्। एवं च स्वमतस्वीकारप्रयोजकं ममत्वमात्रम्, न तु तत्त्वान्वितता परमार्थनिर्दोषतेत्युक्तं भवति। तथैतन्मतं न शास्तुः - न मदभिमताऽऽप्तस्येति - तस्मादपोह्यतेनिराक्रियते नैव स्वीक्रियत इति। एवं च तदपोहनिबन्धनमपि न तत्त्ववैहै, यह बताते है - मैंने इसका अंगीकार किया है, इस लिए यह निर्दोष है। यह मेरे शासक का मत नहीं है, इस लिए यह सदोष है। फिर भी शासक की शिष्यतापूर्वक ही रमण करते है। यह कृतज्ञता है, जड़ता है और अल्पसत्त्वता है।।२५।। 'इस दर्शन को मैंने स्वीकारा है, मैंने इस पर विमर्श किया है, मैंने इसका अभ्यास किया है, मुझे इस पर अनुराग है इस लिये यह निर्दोष है' ऐसा माना जाता है, और 'यह मेरे शासक का मत नहीं' इतने ही कारण से उसका निराकरण किया जाता है। (दोष को लेता है = दोषलम्। दोष को नही लेता = अदोषलम्।) इस तरह स्वपक्षस्वीकार और परपक्ष के इन्कार का रहस्य पक्षपात, मोह एवं ममत्व ही होता है, स्वदर्शन की तत्त्वसंपन्नता-निर्दोषता और परदर्शन की तत्त्वविकलता - सदोषता नहीं। इस तरह वह तत्त्वविमुख है, अतः अपना असत्य शास्त्र भी स्वीकारता है एवं युक्तियुक्त परशास्त्रों की उपेक्षा करता है। शायद व्यक्ति इस बात को समझता भी है, फिर
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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