SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० -तत्त्वोपनिषद् जीवितुमपि न लभ्यते - न शक्यते, इति मुच्यतां दुराग्रहः।।१७।। अन्यदाह - परेऽद्य जातस्य किलाद्य युक्तिमत्, पुरातनानां किल दोषवद्वचः। किमेव जाल्मः कृत इत्युपेक्षितुं, प्रपञ्चनायास्य जनस्य सेत्स्यति।।१८।। पुरातनापेक्षयात्यन्तं बालसदृशस्यास्य वचो युक्तिपूर्णम्। पुरातनानां किल दोषयुक्तं वचनमिति त्वं मन्यसे। किं नु विधात्रा त्वादृशो जाल्मः - दुर्जनशिरोमणिः कृतः - सृष्टः ? इत्यादिप्रलापः क्षेपकृतः परीक्षकोपेक्षायै विश्वप्रतारणाय च सिद्धयेदित्यर्थः।।१८।। (किमेवेत्यत्रैवकारस्तस्याकी परीक्षा में ही तत्पर रहते है, श्रुतज्ञान को युक्ति से तोलते है - वे धर्मजगत में साँस ही नहीं ले सकते। उनका आध्यात्मिक क्षेत्र में जीना भी मुश्किल है, इस लिये तुम अपना कदाग्रह छोड़ दो।।१७।। इन सब क्षेपकथा का उत्तर और समाधान तो इसी द्वात्रिंशिका का पूर्वापर भाग है, इस लिये उस पर अभी कुछ न कहते हुए अन्य क्षेपवचनों का उल्लेख करते है - ____ आज-कल उत्पन्न हुए बालक के वचन युक्तियुक्त है, प्राचीनों के वचन दोषयुक्त है। ऐसा कहने वाले दुष्ट को क्यूँ बनाया गया ? इस तरह उपेक्षा करके जगत को मोहित करने में वह जन सफल होता है।।१८।। अरे.... जरा देखो तो सही, आज-कल का पैदा हुआ यह बच्चा....आज इसकी बात ही युक्तियुक्त है। प्राचीन पुरुषों का वचन तो दोष वाला है.... यही कहना चाहते हो ना ? भगवानने ऐसे बदमाश को क्यूँ बनाया.... हे भगवान !.... (इस व्याख्या में 'किमेव' यहाँ पर १. क- किलास्य यु०।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy