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________________ ®- तत्त्वोपनिषद् - ३१ निन्दारूपः सम्भवेत्। व्यवहाराघटनम्, पूर्वापरविरोधविसरः, भिन्नप्रयोजनापोदितता, असङ्गतिततिः, समाधानदौर्लभ्यम्, स्फुटं दुर्विहितत्वम् - इत्यादि पश्यतः सत्यवादिनः कुतस्तत्प्रशंसासम्भव इति। सम्प्रदायसुधियां सुबुद्धत्वमपि तत्सदृशमेव – कर्तृगौरवैकनिबन्धनम्, न तु पारमार्थिकम्। अन्यथाऽन्यतरसंस्कारसम्भवात्।।१३।। अथ परमार्थतोऽपि यैः पुरातनबुधैस्तत् सुबुद्धम्, तानधिकृत्याहकथं नु लोके न समानचक्षुषो, यथा न पश्यन्ति वदन्ति तत्तथा। जो बातें प्रत्यक्ष से ही बिल्कुल गलत साबित होती हो, जिस वचन की इमारत तर्क और युक्ति के आगे तूट पडती हो, जिसके अनुयायी को भी जीवन व्यवहार में उसका अनुसरण अशक्य ही हो, जहाँ पूर्वापर विरोधों की कोई सीमा न हो, जहाँ विधि-निषेधों की कोइ सीमा न हो, जहाँ असंगतिओं का कोइ समाधान न हो, जिनके कइ विधान मूल उद्देश को ही चकचूर कर देते हो, उस वचनों पर का प्रामाणिक अभिप्राय निंदा के सिवाँ और क्या हो सकता है। इस लिये उसकी प्रशंसा करना चाहे उसे एक ही विशेष दृष्टि का स्वीकार करना पडेगा, जो है शास्त्रकारगौरव। अब रही बात परम्परागत विद्वानों द्वारा शास्त्र के सुबुद्ध होने की, तो इसका जवाब इतना ही है कि जैसा यह आपको सुबुद्ध है, वैसा ही उनकों भी होगा। अर्थात् शास्त्रकार के उपर गौरव होने के कारण ही शास्त्र के सुबुद्ध है, तात्त्विक दृष्टि से नहिं। अन्यथा तो इन शास्त्रों की या विद्वानों की कोई अन्य स्वरूप से ही हमे प्राप्ति होती।।१३।। अभी जिन पुरातन विद्वानों ने उन शास्त्रों को परमार्थ दृष्टि से जाना है, उनके विषय में कहते है - जगत में पुरातन विद्वानों साम्यदृष्टि वाले क्यूँ नही है ? जिसे
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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