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________________ १८ योगः ? ततश्च स्ववधायेत्याद्यत्यसमञ्जसमित्यत्राह मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षणेर्मनुष्यहेतोर्नियतानि तैः स्वयम्। अलब्धपाराण्यलसेषु कर्णवा - तत्त्वोपनिषद् - 8 नगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ? ||७|| स्वयमिति न प्रक्षेपभूतानि किन्तु तैरेव मनुष्यलक्षणैः पुरातनैर्नियतानि मनुष्यवृत्तानीमानि - इत्याशयः । तान्यपि मनुष्यहेतोः । वचन पर प्रश्न कैसे कर सकते है ? इस लिये आपकी यह आत्महत्या वाली बातें बिल्कुल उटपटान है। इस बात का जवाब देते हुए दिवाकरजी कहते है - मनुष्यस्वरूपी ऐसे उन्होंने स्वयं मनुष्य के लिये मनुष्यों के आचार निश्चित किये है। जिन का पार पाया नहीं, ऐसे अगाध पारों को आलसीओ में एक ऐसा कर्णधार कैसे पा सकेगा ? ||७|| सभी बात अतीन्द्रिय ही है, ऐसा नही है। और कहने वाले सब परमात्मा ही थे ऐसा भी नहीं, यह मैं आगे स्पष्ट करूंगा । पुरातन पुरुषों भी मनुष्य के ही लक्षणवाले थे। इस लिये वे स्वयं भी मनुष्य ही थे। और उन्होंने स्वयं' बहुतसी ऐसी बातें बताई है कि जो दिव्य नहीं, किन्तु मनुष्य से ही सम्बद्ध है। मनुष्य के जीवन से बिल्कुल जूड कर जो मनुष्य का वृत्त ही बन गई है, जिसका प्रयोजन भी मनुष्य को ही है, ऐसी बातें उन्होंने अपनी अपनी दृष्टि से नियमित कर दी हैं। क्या ऐसी बातों पर भी विचार नहीं करना चाहिए ? जो चीज़ हमारी आँखो के सामने है, उसे देखे बिना ही किसीकी बात से उसका स्वरूप जानना यह कहाँ तक उचित है ? क्या उसमें भी कोइ समीक्षा नही करनी चाहिए ? अतः जो बातें ऐन्द्रियक है इन्द्रिय द्वारा ज्ञातव्य है, उन बातों दी है, ऐसा नहीं । इस लिए 'स्वयं' शब्द = १. दृष्टविषयक बातें पीछे से किसीने जोड का प्रयोग किया है।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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