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________________ - तत्त्वोपनिषद् - सतामनुचितः, आर्यापवादस्तु जिह्वाच्छेदाधिक इत्याचार्याः । नातः पुरातनप्रतिक्षेपादृतिः । तत्त्वजिज्ञासा तु बाढमादरार्हा, सा च माध्यस्थ्यपूर्णदृशाऽखिलदर्शनपरीक्षणेनैव सफला । १६ असदध्वनो निवर्तनेऽपि सत्त्वापेक्षा, अल्पसत्त्वानां पीडा च। भवानसदध्वगामीति वचोऽप्यरुन्तुदम् । ततश्च स्वेच्छाप्रतिकूलोत्तरभीरूणां तत्त्वान्वेषणगन्धोऽपि दुर्लभः । असदध्वगमनं कायक्लेशैकफलम्, यावद्दूरं गमनम्, तावन्निवर्तनदुःशक्यता । पृच्छतः सकृद्दुःखम्, अपृच्छतः 'किसी सामान्य पुरुष का भी प्रतिक्षेप करना बिल्कुल उचित नहीं है, तो फिर सम्माननीय प्राचीन पुरुषों के प्रतिक्षेप की तो बात ही कहा ? यह तो जिह्वाच्छेद से भी अधिक दोष है।' ऐसा आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी फरमाते है। सबके प्रति उचित आदर करना यही सज्जन का कर्तव्य है। अतः इस प्रबन्ध में प्राचीनपुरुषों का प्रतिक्षेप करने का कोइ प्रयत्न नहीं किया है। प्रश्न है केवल तत्त्वजिज्ञासा का । अंधश्रद्धा को दूर करके मध्यस्थ दृष्टि से कि हुइ सर्वदर्शनों की परीक्षा ही तत्त्वजिज्ञासा का फल है। गलत मार्ग से वापस लौटने में सत्त्व की आवश्यकता है। अंधश्रद्धा झूठे मार्ग को न छोडने की कायरता है । मेरा आजन्म आचरित दर्शन कहीं गलत न नीकले इस खयाल से व्यक्ति परीक्षा करने से घबराहट महेसूस करता है। एक सहज मानवस्वभाव है, गलत रास्ते से वापस लौटने में भी अंतःकरण में दर्द होता है। 'तुम गलत रास्ते पर हो' ऐसी वाणी भी दिल दुःखाती है। इसी हेतु 'मैं सही रास्ते पर हूँ ना ? ऐसा प्रश्न करने में भी थोडी हिचकिचाट होती है। कही मेरी इच्छा विरुद्ध जवाब मिला तो ? यह भय उसे प्रश्न करने में रुकावट बन जाता है। मगर एक बात समज़ लेनी चाहिए कि गलत रास्ते पर जितना ही आगे जाओ, उसका फल केवल श्रम और पसीना है, लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, और वहाँ से लौटना उतना ही मुश्किल और दुःखदायक होता है। परीक्षा
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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