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________________ मंडलदसग लवगे, पणगं निसटमि होइ चंदस्स ॥ मंडलअंतरमाणं, जाणपमाणं पुरा कहियं ॥ ११२ ॥ ___ अर्थ-( चंदस्म ) के० चंद्रनां (मंडलदसगं ) के० दश मांडलां ( लवणे ) के० लवण समुद्रमांछे. अने (पणगं) के० पांच मांडला ( निसहमि ) के० निषधपर्वत उपर ( होइ ) के० छे. वली ( मंडल अंतरमाणं ) के० मंडलना आंतरानुं प्रगाण "पांत्रीश योजन, एक योजनना एक सठीया त्रीशभाग अने एक सठीया एक भागना सात भाग करीये तेवा चार भाग ए अरनी गाथामां कडंछे ते, " तथा ( जाण पमाणं ) के० विमाननुं प्रमाण "एक योजनना छपन्न भाग-" ते ( पुरा कहियं ) के० प्रथम कर्तुं छे नेम जाणवू । ११२ ॥ पणसी निसटुमि य, दुनिय बाहा दुजोय गंतरिया ॥ ईगुणपीसंतु सरं, सूरस्स य मंडला लवणे ॥ ११३ ॥ ५ अर्थ-(य) के० वली ( सूरस्स) के० सूर्यनां (पणसही) के० पौंसठ मांडलां (निसहमि ) के० निषध पर्वत उपर छे. पण तेमांनां (दुनि य बाहा) के० वे मांडलां निषधयवतनी बाहेर इरिवष पर्वतनी जिहाना अग्रभागउपर छे. अने (इगुंगवीसं तु सयं) के० एकसो ओगणीस मांडला ( लवणे ) के० लवण समुद्रमा छे. तथा ते मांडला ( दुजोयणंतरिया ) के० बवे योजनने आंतरे रहेला छे. ११३ ॥ हवे जंबुद्रीपमां तथा लवगसमुहमां चंद्रमूर्यने फरवार्नु क्षेत्र के टला योजन छे ? ते कहे छे.
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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