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________________ ___हवे सब दी। एकेक समुद्रथी वीटया छे ते समुद्रोनां नाम कहे छे:पढमे लवणो जलहि. बीए कालो य पुक्खराइसु ।। दीवेसु हुँति जलहि, दीव समाणेहिं नामेहिं ।।८५||८० ___अर्थः- (पहमे ) के० पहेलो ( लवणो जलहि ) के० लवण नामनो समुइछे, (बीर ) के० बीजो कालो के कालोदधि नामनो समुद्र छे. (य) के० अने (पुक्खराइसु ) के० त्रीजा पुष्करवर समुद्रथी मांडीने (दी.सु .) के० सर्व द्वी ने विषे ( दीवसमाणेहि नाहिं ) के० द्वीना सरखा नामवाला ( जलही) के० समुदो (हुति ) के० होय छे. जेम वारुणिवर द्वी अने वारुणिवर समुद्र. ए प्रमागे वीजा पग जाणवा. ।। ८५ ॥ . ए सर्वे डीप समुद्र वज्रमय जगतीथी वीटायला छे. जगती आठ योजन उंची छे. मूलमां बार योजन पहोली, छो प्रदेशे प्रदेशे हीन थतां उपर चार योजन पहोली छे. ते उपर बे गाउ अने पांचसो धनुष्य उंची पद्मवर बेदिका छे. ते उपर वन छे. ___ हवे लवण समुद्रना चार द्वारर्नु परस्पर अंसर कहे छे. दुन्नि सया य असिया, पणनउइ सहस्स तिन्निं लक्खा य ।। कोसा अंतर लवणे, दारस्स दाराणी विनेया ॥८६॥ अर्थः-( तिनि लक्खा य ) के० वळी त्रण लाख, ( पणनउइ सहस्स) के० पंचाणु हजार, ( दुन्नि सया) के० बसो, (य) के० अने ( असिया) के० एशी एटला योजन, तथा ( कोसो) के एक गाउ उपर, एटलं ( लवणे ) के० लवणसमुद्रमा (दारस्स
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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