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________________ अने तनुवातथी असंख्याता योजन आकाश जाणवु ॥ ३२२ ।। न फुसंति अलोगं चउ-दिसंपि पुढवी य वलयसंगहिया॥ __ अर्थ-(वलयसंगहिया ) के० घनोदधि घनवात अने तनुबात सम्बन्धी वलयवडे विंटलायेली (पुढवी ) के० रत्नप्रभादिक पृथ्वी ( चउदिसंपि ) के०. चारे दिशाये पण (अलोगं) के० लोकने (न फुसंति) फरेंस करती नथी. साते नरक पृथ्वाना तले मध्य भागमां घनोदधि वीशहजार योजन छे. अने घनवातादिक असंख्याता योजन छे.त्यार पछी प्रदेशे घटता घटता आप आपणी पृथ्वीने छेडे थोडा थया थका वलयाकारे पृथ्वीने वींटी रह्या छे. रयणाए वलयागं, छद्ध पंचम जोयण सढे ॥ ३२३ ॥२ ___अर्थ-( रयणाए) रत्नप्रभा पृथ्वीना ( वलयाणं ) के० : त्रणे वलयनो विष्कम एटले छेडे जाडपणुं अनुक्रमे कहे छे. तेमां घनोदधि (छ) के० छ योजन जाडो, घनवात ( अद्धपंचम) के० साडा चार योजन जाडो, अने तनुवात (जोयणसई) के० दोढ योजन जाडो छे. ॥ ३२३ ॥ विक्खंभो घणउदही, घणतणुवायाण होइ जहसंखं ॥ सतिभाग गाऊयं,गाऊयं च तह गाउय तिभागो॥३२४॥२ पढममहीवलयेसु, खिविज्ज एयंकमेण बीयाए । दुतिचउपंचछगुणं, तइयाइसु तंपि खिव कमसो ॥३२५॥ अर्थ-(विक्खंभो) के ए त्रणेने साथे जोडतां पहेली नरक पृथ्वीनी चारे दिशाए बार योजन दूर अलोक छे. (पढम महीवलयेसु) के० पहेली नरक पृथ्वीना त्रण वलयमा एटले (घण
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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