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________________ १६७ करे, अलंकार सभाये अलंकार पहेरे, व्यवसाय सभाये पुस्तक वांची धार्मिक उपगरण लहे, पछी सुधर्मा सभाये सिद्धायतनने विषे जिनप्रतिमाने पूजे छे, माटे देवता उत्पत्तिसमएज वस्त्राभूषण रहित होय छे. ॥ २९३ ॥ अणिमिसनयणा मण-कज्ज साहणा पुप्फदाम अमिलाणा॥ चउरंगुलेण भूमि,न छिबंति सुरा जिणा बिति ॥२९४॥२२ अर्थ-( अणिमिसनयणा ) के० देवशक्तिना कारणे अनिमेष नेत्रवाला, ( मणकजसाहणा ) के० मनथी सर्व कार्यने करनारा. ( पुप्फदामअमिलाणा ) के० कंठमां प्रफुल्लित पुष्पमाला जेमनी करमाय नहि एवा देवता कोइ कारणे मनुष्य लोकमां आव्या छतां (चउरंगुलेण ) के० चार अंगुलवडे (भूमि) के० पृथ्वीने (न छिबंति ) के० स्पर्श करता नथी, अर्थात् पृथ्वीथी चार आंगुल उंचा उभा रहे छे. एम (जिणा बिंति ) के० जिनेश्वर कहे छे. ॥ २९४ ॥ हवे देवता मनुष्यलोकमां कया कारणे आवे ते कहे छे. पंचसु जिणकल्लाणेसु, चेव महरिसितवाणुभावाओ॥ जम्मंतरनेहेण य, आगच्छंति सुरा इहयं ॥ २९५ ॥२२८ ____ अर्थ--(पंचसु जिणकल्लाणेसु) के तीर्थकरना जन्मादिक पांच कल्याणकने विषे, तथा (महारीसितवाणुभावाओ ) के० महोटा ऋषिओना तपना प्रभाक्थी, (य) के० वली ( जम्मंतर नेहेण ) के० जन्मांतरना स्नेहे करीने, (जेम स्नेहथी शालिभद्रना
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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