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________________ १४३. तो पण देवतामां अस्थिरूप संवयण विना जे शक्ति छे तेने पण उपचारथी संघयण कहेवाय. कारण देवतामां चक्रधरथी पण अधिक शक्ति होय छे, तेथी देवतामां वज्रऋषभनाराच संघयण होय छे तेमज अल्पशक्ति एकेंद्रियमां पण होय छे, तेथी एकेंद्रियने छेव संवयण कहेवाय. परंतु मूल भांगे तो देवतामां संघयण नथी ।। २४९ ॥ हवे संवयणथकी गति कहे छे. छेवट्ठेण उ गम्मइ, चउरो जा कप्प कीलियाइ ॥ चउसु दुदुकम्प वुढी, पढमे गं जाव सिद्धीवि ॥ २४२ ॥ अर्थ - ( छेवट्टेण) के० छेत्रठ्ठे संघयणे करी अध्यवसायना विशेषपगाथको जीव ( चउरो जाकप्प ) के० भुवनपति व्यंतर ज्योतिषी अने वैमानिकना चोथा देवलोक सुधी ( उ गम्मइ ) के०जाय छे. त्यार पछी ( कीलियाईसु चउसु ) के० किलिकादिक चार संघयणने पाछलथी गणतां चारे संघयणे करी (दुदुकप्पबुड्ढी) के ० बेबे देवलोकनी चडती चडती उपजे. ते आ प्रमाणे - कोलिका संघयणवालो जीव पांचमा तथा छठ्ठा देवलाक सुधी जाय, अर्द्धनाराच संघणवाल शुक्र अने सहस्रार देवलोक जाय. नाराच संघयणवालो जीव आनत अने प्राणत देवलोक सुधी जाय. ऋषभनाराच संघयणवालो जीव आरण अने अच्युत देवलोक सुधी जाय, अने ( पढमेणं) के० वज्रऋषभनाराच संधयणवालो जीव ( जावसिद्धी वि) के० भुवनपतिथी आरम्भी मोक्ष सुधी जाय ॥ २४२ ॥ हवे शरीरनी आकृतिने संस्थान कहेवाय छे. ने संस्थान छ प्रकारना छे. तेनां नाम तथा लक्षण कहे छे.
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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