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________________ १४० अर्थ-( अणुवय महत्वएहि य ) के० अणुव्रत अथवा महाव्रतने पालनारो, ( वालतवाकामनिज्जराए य ) के बालतप तथा अकाम निर्जरानो करनार, एवो (जो ) के० जे (सम्पदीही य ) जीवो के० सम्यक् दृष्टि जीव छे ते देवाउयं निबंधइ ) के० देवतानुं आयुष्य बांधे छे. ॥ २३६ ॥ उक्तम् ।। नाणस्स केवलाणं, धम्मायरियस्स सवसाहूणं ॥ माई अवण्णवाई, किबिसियभावगं कुणइ ॥ २३६ ॥ अर्थ- नाणस्स ) के० ज्ञानना, (केवलीण) के० केवलोना, (धम्मायरियस्स) के० धर्माचार्यना अने ( सव्वसाहूणं) के० सर्व साधुना (अवण्णवाई) अवर्णवादने बोलनारो अने (माई) के० कपट करनारो जीव (किब्बिसियभावणं) के० किलबीशिक एटले पापी भावनाने (कुणइ ) के० करे छे, एटले किल्विषिक देवपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ २३६ ॥ कोऊय भूइकम्भे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवे ॥ इढिरससायगरुओ, अभिओगं भावणं कुणई ॥२३७॥ अर्थ-(कोउयभूइकम्भे) के० कौतुक अथवा स्नानादिक भूतिकर्म करनार, (पसिणापसिणे ) के० प्रश्नथी निमित्त कहेनार अथवा प्रश्न विना निमित्त कहेनार, ( निमित्तमाजीवे ) के निमि त्तियाना कर्मथी आजीविका करनार, तेमज ( इडिरससायगरुओ) के० ऋद्धिगारव. रसगारख अने शातागारव करनारी जीव ( अभि ओगं भावणं ) के० अभियोगिक भावनाने (कुणई ) के० करे छे. एंटले सेवक देवपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ २३७ ॥ हवे अभियोगिक भावनानुं स्वरूप कहे छे.
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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