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________________ अर्थ:-जेम निविड नंदनवनना चंदनना विलेपनवालाने पर्वतनी भूमि अथवा बीजा कोइपण वृक्षे रति थती नथी, तेम मोक्षार्थीने विषय उपर प्रीति थती नथी, तेमज मनुष्य तथा स्वर्गप्रमुख समग्र गतिने विषे पण प्रीति थती नथी ॥ २१ ॥ इति शुद्धमतिः स्थिरीकृताऽपरवैराग्यरसस्य योगिनः॥ स्वगुणेषु वितृष्णतावहं परवैराग्यमपि प्रवर्त्तते ॥२२॥ ___ अर्थ:-एम विचारी शुद्धबुद्धि स्थिर करीने जेने बीजा वैराग्यनो गुण प्रगट्यो छे तेवा योगीने आत्मगुणने वधारे एवी तृष्णाना आगमरूप परम वैराग्य प्रगट थाय ॥ २२ ॥ विपुलर्डिपुलाकचारणप्रबलाशीविषमुख्यलब्धयः ॥ न मदाय विरक्तचेतसामनुषंगोपनताः पलालवत् ॥ २३ अर्थ:-विपुललब्धि, पुलाकलब्धि, चारणलब्धि, महोटीआशीविषयलब्धि, प्रमुख अनेक लब्धिओ जो पण उपजे, तोपण ते वैरागी मुनिने अहंकार भणी थाय नहीं, मात्र एक मुक्तिसुख विना बीजां सुखने पलाल पुंजरूप ते माने छे ।।२३॥ कलितातिशयोऽपि कोऽपि नो विबुधानां मददगुणव्रजः ॥ अधिकं न विदन्त्यमी यतो निजभावे समुदंचति स्वतः ॥ २४॥ अर्थः-पंडित ते कोइ मोटा अतिशयादि गुणना समूहे सहित होय; तोपण मद करे नहीं, तेथी कांइ अधिकता पण न गणे, मात्र पोताना शुद्ध स्वभावमांज आनंद पामे ॥ ३४ ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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