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________________ २३ देदीप्यमान शोकरूपी अग्नि प्रज्वले छे, निरंतर अपयशरूप राख छे; माटे संसार ते स्मशान छे, एमां रमणीक चीज कोई नथी | ९ | धनाशा यच्छायाप्यति विषममूर्छा प्रणयिनी विलासो नारीणां गुरुविकृतये यत्सुमरसः ॥ फलास्वादो यस्य प्रसरनरकव्याधिनिवहस्तदास्या नो युक्ता भव विषतरावत्र सुधिया ॥ १० ॥ अर्थ – धननी जे इच्छा ते अतिशय विषयरूप विषम मूर्च्छाने विस्तारनारी छे, स्त्रीयोनो विलास ते महाविकारकारी कुसुमनो रस छे, जेना फलनो स्वाद विस्तार पामतो नर्कनी पीडाना समूह तुल्य थाय; एवं संसाररूप विषयवृक्ष छे, एनी oo विश्राम करवो युक्त नथी ॥ १० ॥ क्वचित् प्राज्यं राज्यं वचन धनलेशोप्यसुलभः कचिज्जातिस्फातिः क्वचिदपि च नीचत्वकुयशः ॥ क्वचिल्लावण्यश्रीरतिशयवती कापि न वपुः स्वरूपं वैषम्यं रतिकरमिदं कस्य नु भवे ॥ ११ ॥ अर्थ — कोने तो विस्तारखालुं राज्य छे, कोइने धननो लेश पण दोहलो छे, कोइनी उत्तम जाति छे, कोइनी नीच जाती छे, कोइने अपयश छे, कोइने लावण्यलीलानी लक्ष्मी घणी छे, कोइनुं शरीर पण रुडुं नथी, एवं संसारनुं स्वरूप विषम छे, ते कोने रतिकारी थाय १ ।। ११ ।। इहोद्दामः कामः खनति परिपंथि गुणमहीमविश्रामः पार्श्वस्थितकुपरिणामस्य कलहः ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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