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________________ महादोषान् दंतान प्रकटयति वक्रस्मरमुखी न विश्वासार्होयं भवति भवनकंचर इति ॥५॥ अर्थ-अज्ञानदिशारूप रात्रिनो चालनार जेना माथा उपर विषमकषायरूप सर्पनो समूह रह्यो छे, जेना गलाने विषे विषयरूप हाडकां बांध्यां छे, जे महोटा दोषरूप दांत प्रकट करे छे, जेनु मुख कामनी चेष्टा करे छे, एवो संसाररूपी राक्षस ते विश्वास करवाने योग्य नथी ॥५॥ जना लब्ध्वा धर्मद्रविणलवभिक्षां कथमपि प्रयांतोवामाक्षीस्तनविषमदुर्गस्थितिकृता ॥ विलुट्यंते यस्यां कुसुमशरभिल्लेन बलिना भवाटव्यां नास्यामुचितमसहायस्य गमनं ॥ ६॥ अर्थ-जे प्राणी धर्मरूप धनना लवलेशने पाम्यो छे, तेणे भिक्षा मागवाने एकला विचर, नहि, केमके भवाटवीने विषे बलवत्तर भील एवो जे काम ते स्त्रीना स्तनरूप विषयी कोटमां रहीने ते प्राणीमात्रना धर्मरूप धनने लुटी ले छे, माटे सहाय विना ते प्राणीए एकलुं विचरवु ( चालवू ) योग्य नथी ॥ ६॥ धनं मे गेहं मे मम सुतकलनादिकमतो विपर्यासादासादितविततदुःखा अपि मुहुः । जना यस्मिन् मिथ्यासुखमदभृतः कुटघटना मयो यं संसारस्तदिह न विवेकी प्रसजति ॥७॥ . अर्थ-धन, घर, पुत्र ने स्त्री आदि सर्व वस्तु मारी छे,
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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