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________________ भवस्वरूपचिन्ताधिकार तदेवं निर्देभाचरणपटुता चेतसि भवस्वरूपं संचित्य क्षणमपि समाधाय सुधिया ॥ इयं चिंताऽध्यात्मप्रसरसरसी तोरलहरी सतां वैराग्यायप्रियपवनपीना सुखकृते ॥ १ ॥ अर्थ - एटला माटे निर्दभ आचरण करवाने हे चेतन ! तुं सावधान था ! आत्मस्वरूपनुं चिंतन कर ! केमके क्षण मात्र पण सद्बुद्धि हृदयमां धरीने आत्मस्वरूपनी चिंता करवी तेही ज आत्मदिशारूप सरोवरनी लहरी छे ते शीतलता करे एवी छे; एही ज सज्जन लोकने वैराग्यदिशारूप पवन पूर्ण पुष्टताकारी छे; माटे ते आत्मिक सुखने अर्थ साधवी ॥ १ ॥ इतः कामौर्वाग्निर्ज्वलति परितोदुःसह इतः पतंति ग्रावाणो विषय गिरिकुटाद्विघटिताः ॥ इतः क्रोधावर्ती विकृतितटिनी संगमकृतः समुद्रे संसारे तदिह न भयं कस्य भवति ॥ २ ॥ अर्थ – एक तरफ कामरूप वडवानलनो अग्नि बली रह्यो छे ते दुःखे सहन थाय एवो छे, अने एक तरफ पंचकारना विषयरूप पर्वत, तेहथी पड्या जे उन्मादरूप पथरा, तेणे करी भयंकर, वली एक तरफ विकारदिशारूप नदीना संग - थकी क्रोधना आवर्त्त पड्या छे; एवो जे आ संसार-समुद्र तेने विषे कहो का ठेका प्राणीने भय नथी । सर्वत्र भय ज वर्ते छे ॥२॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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