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________________ २०३ - अर्थः-पुण्य-पाप रहित एहवा जे परमात्मा प्रभु तेना स्वरूप, चिंतवद् तेनेज ध्यान कहिये, अने स्तुति पण तेज तथा भक्ति पण तेज कहिये ॥ १२३ ॥ पण शरीरना वर्णे, रूपे करी, लावण्यताए करी, समवसरणे अने छत्रे करी, तथा इंद्रध्वजादिके करी जे परमात्माने वखाणा एहवी स्तुतिने वस्तुतः साची न कहिये ॥ १२४ ।। व्यवहारस्तुतिः सेयं वीतरागात्मवर्तिनां ॥ ज्ञानादीनां गुणानांतु वर्णना निश्चयस्तुतिः ॥१२॥ पुरादिवर्णनाद्राजा स्तुतः स्यादुपचारतः ॥ तत्त्वतः शौर्यगांभीर्यधैर्यादिगुणवर्णनात् ॥ १२६ ॥ अर्थः-केमके ए स्तुति तो व्यवहार छे, पण जेमां वीतरागना ज्ञानादिक गुण प्रशंसवा तेहने निश्चय स्तुति कहिये ॥ १२५ ॥ जेम देश नगरादिके करी राजा वखाणवो ए उपचारे स्तुति जाणवी; पण राजानुं बल, गांभीर्यता, धैर्यतानुं वर्णवg, ते निश्चयथी स्तुति कहिये ॥ १२६ ॥ मुख्योपचारधर्माणामविभागेन या स्तुतिः ॥ न सा चित्तप्रसादाय कवित्वं कुकरिव ॥१२७ ॥ अन्यशाभिनिवेशेन प्रत्युतानर्थकारिणी ॥ सुतीक्ष्णखड्गधारेव प्रमादेन करे धृता ॥ १२८ ॥ अर्थ:-जेम कुकविनी कविताथी पंडित रीझे नहीं, तेम बाह्य उपचार देखी व्हेंचण विनानी जे स्तुति करिये ते थकी चित्त प्रसन्न थाय नहीं ॥ १२७ ॥ जे पोताना हठ-कदाग्रहे करी
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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