SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ संग्रहनय उपर चाले, केमके सम्मति ग्रंथमां सिद्धसेन सरिए का छे ॥ ८८ ॥ तन्मते च न कर्तृत्वं भावानां सर्वदान्वयात् ॥ कूटस्थः केवलं तिष्ठत्यात्मा साक्षित्वमाश्रितः।।८९॥ कर्तुं व्याप्रियते नायमुदासी नइव स्थितः॥ आकाशमिव पंकेन लिप्यते न च कर्मणा ॥ ९० ॥ अर्थ:-तेने मते कर्त्तापणुं नथी, केमके सदैवभावनो अन्वय छे माटे कूटस्थ केवल निर्विक्रिय जे आत्मा ते साक्षीपणाने आश्रीने रह्यो छे ।। ८९ ॥ करवानो व्यापार करतो नथी; उदासीनी पेठे रह्यो छे. जेम कचरे आकाश लेपातुं नथी तेम कर्मे आत्मा लेपातो नथी ॥ ९० ॥ स्वरूपं तु न कर्त्तव्यं ज्ञातव्यं केवलं स्वतः ॥ दीपेन दीप्यते ज्योतिर्नित्यपूर्व विधीयते ॥११॥ अन्यथा प्रागनात्मा स्यात्स्वरूपाननुवृत्तितः॥ भव हेतुसहस्रेणाप्यात्मता स्यादनात्मनः ॥ ९२ ।। ___ अर्थः-पोताना रूपने नवीन करवू नथी, मात्र पोताना रूपने पोताथकी केवल जाणी लेवू छे. जेम दीवेथी ज्योति दीपे छे तेम नित्य शाश्वत आत्मा स्वप्रकाश होवाथी पोते पोताने प्रकाशे छे ॥ ९१ ॥ एम आत्माने स्वप्रकाश अने शाश्वत अंगीकार करीए नही अने परप्रकाश तथा कर्तृत्व सिद्ध मानीए तो, पूर्वे अनात्मपणुं अंगीकार करवू पडशे, केमके क्रियावडे उत्पन्न थएला पदार्थर्नु पूर्वनुं रूप जुदुंज होय छे, एवो नियम छे. एवी रीते आत्मानी उत्पत्तिनी पूर्वे आत्माने अनात्मा मानवो
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy