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________________ १७९ अर्थ-जन्म जरादिक परिणाम कर्मने वश छे, अने आत्मा तो अविकारी छे तेथी कर्मनो भेद आत्माने संभवे नही; केमके ए आत्मस्वभाव नथी ॥ १५ ॥ जन्म जरादिक कर्मप्रकृति छे, अने कर्मजनित भावने केवल आत्माने विषे आरोपीने भ्रष्टज्ञानी भयंकर संसारसमुद्रमां भमशे ॥ १६ ॥ उपाधिभेदजं भेद वेतज्ञः स्फटिके यथा ॥ तथा कर्मकृतं भेदमात्मन्येवाभिमन्यते ॥ १७ ॥ उपाधिकर्मजो नास्ति व्यवहारास्त्वकर्मणः॥ इत्यागमवचो लुत्पमात्मवैरूप्यवादिना ॥ १८॥ __ अर्थ—स्फटिकमां उपाधि भेदे जेम मूर्ख प्राणी भेद माने छे, तेम आत्माने विष प्रगव्यो जे कर्मकृत भेद ते माने छे ॥ १७ ॥ पोताना व्यवहारथी कर्मजनित जे उपाधि ते नथी, एम मानता आत्मविरूपवादी आगमर्नु वचन लोपे छे ॥ १८ ॥ एकक्षेत्रस्थितोऽप्येति नात्मा कर्मगुणान्वयम् ॥ यथाऽभव्यस्वभावत्वाच्छुडो धर्मास्तिकायवत् ॥१९॥ यथा तैमिरिकश्चंद्रमप्येकं मन्यते द्विधा ॥ अनिश्चयकृतोन्मादस्तथात्मानमनेकधा ॥ २० ॥ अर्थ-धर्मास्तिकायनी परे एक क्षेत्रमा रह्यो छे तो पण कर्मगुणना संयोगने पामतो नथी, एवो आत्मा रुडा स्वभावथी शुद्ध छे ॥ १९ ॥ जेम तिमिर के० ग्रहणघेलो एक चंद्रने बे चंद्र माने छे तेम निश्चयनयनी जाण विनानो जे प्राणी ते उन्माद ममत्वे करी आत्माने अनेक प्रकारे माने छे ॥ २० ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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