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________________ व्यवहार तेनु सेवन करवे करीने घणा आदर सहित क्रिया करे, तो मार्ग जे रत्नत्रयी तेनुं बीज प्रगट थाय छे ॥ २६ ॥ गुर्वाज्ञापारतंत्र्येण द्रव्यदीक्षाग्रहादपि ॥ वीर्योल्लासक्रमात्प्राप्ता बहवः परमं पदं ॥ २७॥ अध्यात्माभ्यासकालेपि क्रिया काप्येवमस्ति हि ॥ शुभौघसंज्ञानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किंचन ॥२८॥ अर्थ-गुरुनी आज्ञाने आधीन रहेवाथी द्रव्यदीक्षा लीधी होय तो पण वीर्योल्लासनी अनुक्रमे वृद्धि करीने घणा जीव परमपदने पाम्या छे ॥ २७ ॥ ए रीते अध्यात्मना अभ्यासकालने विषे पण क्रिया काइक लेशमात्र निश्चे वर्तेज.छे, अने शुभकारी ओघ संज्ञाने सहचारीपणे तिहां ज्ञान पण कांइक वर्ते छे ॥ २८ ॥ अतो ज्ञानक्रियारूपमध्यात्म व्यवतिष्ठते ॥ एतत्प्रवर्द्धमानं स्यानिर्दभाचारशालिनां ॥ २९॥ ___ अर्थ-एज कारण माटे ज्ञानने क्रियारूप ते अध्यात्मपणुं वर्ते छे, जे ज्ञान क्रियारूप ते अध्यात्म छे. ए ज ज्ञानक्रिया निर्दभाचारे करीने मनोहर एहवो जे प्राणी तेने विषे उत्तरोत्तर वृद्धिने पामे छे ॥ २९ ॥ ए बीजो अध्यात्मना स्वरूपनो अधिकार संपूर्ण थयो॥ दंभो मुक्तिलतावहिर्दभो राहुः क्रियाविधौ ॥ । दौर्भाग्यकारणं दभो दंभोध्यात्मसुखार्गला ॥१॥ दंभो ज्ञानाद्रिदंभोलिर्दभः कामानलेहविः॥ व्यसनानां सुहृदंभो दंभश्चौरो व्रतश्रियः ॥२॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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