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________________ लोक ने परलोक संबंधी कष्ट ते बीजे पाये चिंतवे ए बीजो भेद. ॥३७॥ जे योगना अनुभवथी थयो अने प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेशना बंधथी नीपज्यो एहवो जे कर्मनो विपाक तेने शुभाशुभ वहेचणथी ध्यावे ए बीजो भेद ॥ ३८ ॥ उत्पादस्थितिभंगादिपर्या यैर्लक्षणे पृथक् ।। भेदैर्नामादिभिलोकसंस्थानं चितयेद् भृतं ॥ ३९॥ चिंतयेत्तत्र कर्तारं भोक्तारं निजकर्मणां ॥ .. अरूपमव्ययं जीवमुपयोगस्वलक्षणं ॥४०॥ ... अर्थः-उत्पाद, व्यय अने ध्रुव, काल तथा भंगादि पर्याय लक्षणे करी जुदा जुदा भेदें नाम, स्थापना, द्रव्य, भावभेदे करीने चौद राजलोकनुं संस्थान धारीने चिंतवे ॥ ३९ ॥ तिहां पोताना कर्मनो कर्ता-भोक्ता आत्मा छे, एम चिंतवे. ए जीव अरूपी, अविनाशी अने उपयोग लक्षणे युक्त छे, एम चिंतये ए चोथो भेद ॥ ४० ॥ तत्कर्मजनितं जन्मजरामरणवारिणा ॥ पूर्ण मोहमहावर्त्तकामौर्वानलभीषणं ॥४१॥ आशामहानिलापूर्ण कषायकलशोच्छलत् ।। ___ असद्विकल्पकल्लोलचक्रं दधतमुद्धतं ॥४२॥ अर्थ:-हवे कर्मजनित संसारसमुद्र वखाणे छे ते जन्म, जरा अने मरणरूप जले पूर्ण भयों छे, तथा मोहरूप मोटा आवर्त, तद्रूप भमरी अने कामरूप वडवानले करी भयंकर ॥४१॥ आशारूप प्रचंडवायुवडे भरपूर, कषायरूप चार कलशाये युक्त अने माठा विकल्परूप महाउद्धत कल्लोल जिहां उछले छे एवो भवसमुद्र भयंकर छे ॥ ४२ ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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