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________________ इष्टानां प्रणिधानं च संप्रयोगवियोगयोः ।। निदानचिंतनं पापमार्त्तमित्थं चतुर्विधम् ॥५॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः ॥ अनतिक्लिष्टभावानां कर्मणां परिणामतः ॥ ६॥ अर्थ-बीजो भेद इष्टर्नु चिंतन करे, एटले रखे इष्ट वस्तुना संयोगनो वियोग थई जाय; त्रीजो निया| करे, चोथो रोगना औषधनी चिंता करे. ए चार आर्तध्यानना प्रकार छ ।॥ ५ ॥ ए मध्ये कापोत, नील, कृष्ण ए त्रण लेश्यानो संभव छे केमके जेमां अति क्लिष्ट भावना नथी एवी कर्मनी परिणतिना परिणामे करी ए त्रण लेश्यानो संभव छे ॥ ६ ॥ क्रंदनं रुदनं प्रोचैः शोचनं परिदेवनं ।। ताडनं लुंचनं चेति लिंगान्यस्य विदुर्बुधाः ॥ ७ ॥ मोघं निंदनिजं कृत्यं प्रशंसन् परसंपदः ॥ विस्मितः प्रार्थयनेताः प्रसक्तश्चैव दुर्जनः ॥ ८॥ अर्थ-कोर करवो, ऊंचे स्वरे रडवू, शोचना करवी, नाम दइने रडवू, मारवू, माथाना बाल तोडवा इत्यादिकने पंडित आर्तध्याननां लक्षण कहे छे ॥ ७ ॥ अमे मंदबुद्धि छीए एम कहीने पोतार्नु कार्य निंदे, अमे शुं पालीशुं ? मुक्तिमार्ग तो ' महोटो छे, एम प्रशंसा करे, एम विस्मित थको लोक पासे मांगतो फरे. इत्यादिक दुर्जननी रीत छ ।॥ ८॥ प्रमत्तश्चेद्रियार्थेषु गृद्धो धर्मपराङ्मुखः ।। जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्नार्तध्याने प्रवर्तते ॥९॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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