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________________ अर्थ--वली तत्त्वने अंगीकार करतां थकां पूर्व प्रतिपन्न थयु छे सम्यक्त्वदर्शन जेने एवा श्रावक तथा यति ते त्रण प्रकारना १ उपशमसमकिती, २ क्षयोपशमसमकिती, ३ क्षायकसमकिती ते अनंतानुबंधीनो अंश खपाव्यो छे जेणे ॥९॥ वली जेणे दर्शनमोहनीय खपावी छे अथवा मोहनीयने उपशमावी छे एहवा जे उपशांतमोही तथा क्षपकश्रेणिने विषे वर्ते छे तथा जेणे मोहनो क्षय कयों छे ते सयोगीकेवली तथा अयोगीकेवली भगवंत जाणवा ॥१०॥ यथाक्रमममी प्रोक्ता असंख्यगुणनिर्जराः ॥ यतितव्यमतोध्यात्मवृद्धये कलयापि हि ॥११॥ ज्ञानं शुद्ध क्रिया शुद्धत्यंशी द्वाविह संगतौ॥ चक्रे महारथस्येव पक्षाविव पतत्रिणः ॥१२॥ अर्थ-ए अनुक्रमे जे कह्या ते सघला एक एक थकी असंख्यातगुणी निर्जराना कर्ता छे; माटे एक कलाए करीने पण अध्यात्मनी वृद्धिने अर्थे उद्यम करवो एहीज हेतु छे ॥ ११ ॥ जेम रथनां बे चक्र ते रथनी साथे संलग्नज छे, तथा पक्षीनी बे पांखो ते पक्षीनी साथे संलग्नज छे, तेम एक शुद्ध ज्ञान अने बीजी शुद्ध क्रिया ए बे अंश ते अध्यात्मनी साथे संलग्न छे ॥१२॥ तत्पंचमगुणस्थानादारभ्यैवैतदिच्छति ॥ निश्चयोव्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारतः ॥१३॥ चतुर्थेऽपि गुणस्थाने शुश्रूषाद्या क्रियांचिता ॥ अप्राप्तस्वर्णभूषाणां रजताभूषणं यथा ॥१४॥ अर्थ-पूर्वे पण निश्चयनय अने व्यवहारनयनु आरोपण
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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