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________________ १३२ माणसमां विपरीत गुण सृज्या छे ! जेवा देव तेवी पात्री, अने मेघजल सर्पना मुखमां जेम विषतुल्य थइ जाय छे, ए कहेवतने विधाताये खरी पाडी छे, केमके जे कदाग्रहीनी चतुराइ ते कपटने अर्थे थाय, अने शास्त्र भणवू ते मदने अर्थे थाय, तथा बुद्धि, डहापण अने उपदेश ते. लोकने ठगवाना साधनने अर्थे थाय अने धर्यपणुं ते गर्व करवाने अर्थे थाय ॥ १८ ॥ असग्रहस्थेन समं समंता सौहार्दभृदुःखमवैति तादृग् । उपैति यादकदली कुवृक्ष स्फुटत्रुटत्कंटककोटिकीर्णा ॥ १९ ॥ अर्थ:-जेम केलर्नु वृक्ष ते कंथेरादिक वृक्षने संगे कांटाये करी कोराय छे तेम जे प्राणी कदाग्रही साथे मित्राई करे ते अंते दुःखनो विपाक पामे छे ॥ १९ ॥ विद्या विवेको विनयो विशुद्धिः, सिद्धांतवाल्लभ्यमुदारता च ॥ असद्ग्रहाद्यान्ति विनाशमेते, __ गुणास्तृणानीव कणाहवाग्नेः ॥ २० ॥ ... अर्थ:-जेम अग्निथी घासना समूह भस्मीभूत थाय छे तेम विद्या, विनय, विवेक, विशुद्धि अने सिद्धांत उपर वलभतापणु अने उदारता ए सर्व कदाग्रहथी नाश पामे छे ॥ २० ॥ स्वार्थः प्रियो नो गुणवांस्तु कश्चिन्__ मूढेषु मैत्री न तु तत्त्ववित्सु ॥ असद्ग्रहापादितविश्रमाणां स्थितिः किलासावधमाधमानां ॥ २१ ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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