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________________ पार विना परिमित परमाणुनुं ग्रहण केम थाय ? वली संयोगवियोगादिकनी कल्पना पण केम घटे ? ॥ २९ ॥ एम सांभलीने कोई बोल्यो के- हरकोई कर्मथी पूर्व संस्कार दिठा विना शरीरनो संयोग थाय छे, तेनो उत्तर आपे छे. एम जन्मनी उत्पत्ति ते जीवना व्यापार विना-वेंचण विना थाय नही, इति भावार्थः ॥ ३०॥ कथंचिन्मूर्ततापैतिर्धिना वपुरसंक्रमात् ॥ व्यापारयोगतश्चैव यत्किचित्तदिदं जगुः ॥ ३१ ॥ नि:क्रियोऽसौ ततो हति हन्यते वा न जातुचित् ॥ किंचित्केनचिदित्येवं न हिंसाऽस्योपपद्यते ॥ ३२॥ - अर्थः-शरीरने संयोगे तो जीव काईक रूपीपणुं पामे छे. जो शरीरनो संक्रम न होय तो जे कांई छे ते इहां कहे छे ॥ ३१ ॥ जेणे आत्मा त्यागी कीधो छे ते एम कहे छे के आत्मा क्रिया रहित छे, माटे कोइने हणतो नथी तेम कोइ काले कोइथी हणातो पण नथी; एबुं जेना चित्तमा छे ते हिंसा नहीं माने ॥ ३२॥ अनित्यैकांतपक्षेऽपि हिंसादीनामसंभवः । नाशहेतोरयोगेन क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥ ३३ ॥ न च संतानभेदस्य जनको हिंसको भवेत् ॥ सांवृतत्वादजन्यत्वाद् भावत्वनियतं हि तत् ।३४। ___अर्थ:-एम एकांते अनित्यवादीने पक्षे हिंसा नथी मनाती, केमके ते सर्व पदार्थ क्षणरूप माने छे; माटे आत्मा क्षणमां नाशरूप छे, ते पोतानी मेलेज मरे छे तेवारे मानार
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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