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________________ 'तत्वबिन्दुः ४ चोथो वस्तुधर्म. वस्तुस्वरूपे वस्तुधर्म पामतां स्वरूपाचरण स्थिरता तथा समकित पामे, परमात्मस्वरूप थाय. ___ए चार भेदमांथी एक पण दुहवाय नहिं तेम प्रवर्ववं. जे भव्य क्रियाविधि आचरतो स्वस्वरूपोपयोगमा वर्ते ते शिघ्र कर्म नष्ट करी परमात्मपद पामे. १९-कर्म विधाछे. अकर्मनी वर्गगा ते द्रव्यम. पांच प्रकारना . शरीरते नोकर्म जाणवां, अने रागद्वेषते भावकर्म आत्माश्रित छे. तेमां द्रव्यकर्म अने नोकर्म पौद्गलिकछे. तथा शाता अने अशाता ते द्रव्यकर्माश्रितछे तथा हर्षोल्लास ते भावकर्माश्रितछे. २०-पंच परमेष्टीतुं स्मरण करवाथी ओदयिककर्मनु निवारग थाय, अरिहंतादिकनुं द्रव्यथी शरण करतो जोव पापनो उदय निफल करे. तथा विपाकवेदन पण अल्प थाय, तथा अपा अप्पंमिरओ-आत्मा आत्मानुं शरण करे अर्थात् स्वस्वरूपमा परिणमेतो सर्वकर्म क्षय करे. एम आत्मसरण अने निमित्तशरणनो भेद जाणवो. अरिहंतनुं नाम स्मरतां, ध्यातां, रागद्वेष । नष्ट थाय, सिद्धपद स्मरता, ध्यातां, आत्मा अरूपिभावने पामे. तथा आचार्यपद गणतां, स्मरतां, विचारतां, ध्याता, पंचाचार प्रवर्तन सुलभ थाय, अने भवांतरे आचार्य गणधरादिक पद पामे. तथा उपाध्यायपदनु स्मरण करतां तथा ध्यातां शास्त्रार्थ तथा सूत्राभ्यासनी सुलभता थाय, भवांतरे अध्यापन शक्ति
SR No.023422
Book TitleTattvabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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