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________________ ॥" प्रवित्र जिषुखापत्याऽनिषेधिस्वसुताऽप्रत्र जितपूर्विशेषाशेषतपस्यार्थि तपस्योत्सव करणतत्कुटुंब निर्वाहा दिसाहाय्यकृत्तद्धे तु कतीर्थ करनामकर्मार्जक श्रीकृष्णनृपादिवत् ॥ ए० श्रीकृष्णादीनां केषांचिदंतः सम्यक्त्वा दिजावेऽपि विरत्यादिविशेषगुणाऽनावेनाऽनुदराकन्येत्यादिवदंतरसारत्वं ज्ञेयमिति द्वितीयो जंगः ॥ २१ ॥ अन्ये तु चातृकलत्रपुत्रादिस्वजनपरिजनादिप्रतिबोधाऽशक्ताः परेषां धर्मसाहाय्यायमाश्च, सम्यग् धर्मानुष्टानैः स्वं जवात्तारणेनोपकुर्वतीत्यंतः साररत्न तुल्याः, पूर्व नंगोक्तसहदेवाऽग्रजवि - मलवदिति तृतीयो जंगः ॥ २२ ॥ दी सेवानी इच्छावाळा पोताना पुत्रोने निषेध नहीं करनारा, तथा पोताना पुत्रोए दीक्षा लीधा पेहेलां. बाकीना सघळा तपस्याना अथींओनी तपस्यानो उत्सव करनारा, तथा तेओना कुटुंबियाने आजीविका आदिकनी साहाय करनारा, तथा तेथी तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करनारा श्रीकृष्ण राजा आदिकनी पेठे तेवा श्रावको जावा || ए० || श्रीकृष्ण आदिक केटला कोने अंदरथी समकीत आदिकनो नाव होते छते पण विरति आदिक विशेष गुणना अजावें करीने 'उदर विनानी कन्या' इत्यादिकनी पेठे अरथी असारणं जावं; एवी रते बीजो जांगो जाएवो || १ || वळी केटलाक श्रावको नाइ, स्त्री, पुत्र त्र्यादिक स्वजन तथा परिवार आदिकने प्रतिबोधवाने अशक्त होय बे, तेमज बीजाओने पण धर्मनो सहाय आपवामां असमर्थ होय बे, परंतु सम्यक् प्रकारनी धर्मक्रियाओयी फक्त पोताने संसारथी तारवारूप उपकार करी शके बे, माटे अंदरथी सारवाळा रत्न सरखा बे; (कोनी पेठे ? तोके) पूर्वना जगामां कहेला सहदेवना मोटा जाइ मिलनी पे एंवी रीते त्री जो नांगो जावो ॥ ५२ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर..
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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