SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ ७॥ अपि च गुणगुरवो गुरवस्ततस्ते यदि कयमपि पुष्टशैक्षशिक्षापनेन कोपमुपागमंस्त. थापि तेषां नगवदाझावर्तित्वादपपापन्नाजां मिथ्याःकृतादिमात्रेणापि विशुधिरुपजायते ॥ १३१ ॥ शिष्यस्तु नगवदाझा विनोपतो गुर्वाशातनायाश्चोपचिताऽशुनगुरुकर्मा दीर्घतरन्नाजी ॥ १३ ॥ किंचैवं स वर्त्तमानो मतिमानपि श्रुतरत्नबहिर्नवति, अन्यत्रापि तस्य पुर्खनश्रुतत्वात् ॥ १३३ ॥ को हि नाम सचेतनो दीर्घतरजीविताऽनिनाषी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिंदून प्रक्रिपतीति ॥ १३ ॥ स एकांतेनाऽयोग्यः, प्रतिपकनावनायामपीदमेव कथानकं परित्नावनीयं ॥ १३५ 00000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܐ श्री उपदेशरत्नाकर. वळी पण गुरुओ गुणांथी मोहोटा छे, अने तेओ कदाच कोई कारणथी दुष्ट शिष्यने शिखामण आपवाथी क्रोध पामे, तोपण तेश्रो प्रजुनी आझामां वर्तता होवायी तेओने स्वरूप पाप लागे , अने ते फक्त मिथ्या दुष्कृत आपवाथीज शुद्ध या जाय छे ॥१३१ ।। अने शि.प्य तो मनुनी आझाने लोपवायी तथा गुरुनी आसातनायी अशन कमाने उपार्जन करवायी जारेकमी थयो थको दीर्थ संसारने जजनारो थाय चे ॥१३॥ 8 वळी एवी रीते वर्तनारो शिष्य बुद्धिवान् होय तोपण ज्ञानरत्नथा बाह्य थाय जे, तेम बीजा गच्छांतर आदि कमां पण तेने छान मळवं दुर्वज थाय ने ॥ १३३ ॥ बळी घणा काळ मुधी जीवितनो अनिझापी चतुर एवो कयो माणस एवो होय के जे पोताने हाये सर्पना मुखमा दूधना विदुओ रं? ॥१३४॥ माटे एवा प्रकारको शिप्य एकांते अयोग्य छे बळी नपर वर्गवेधं आजीरीन दृष्टांत प्रतिपक जावनामां पण नीचे मुजब जावी वेव।।१३॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy