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________________ उपसंहार प्रस्तुत ग्रन्थ अपभ्रंश-पाठावलीनो प्रथम अंश छे. तेमां आशरे इ. स. सातमाथी ते अगीआरमा सैका सुधीना अपभ्रंश-साहित्यमांथी उद्धरणो लेवामां आव्यां छे. आ ग्रन्थमां कुल चौद उद्धरणो छे. तेमांथी छ उद्धरणो अप्रसिद्ध प्रन्थोमांथी लेवामां आव्यां छे. आ अप्रसिद्ध ग्रन्थोनी बधी हाथप्रतो भांडारकर प्राच्यविद्यामंदिरमांथी मेळववामां आवी हती. ते माटे ते संस्थानो, हुं ऋणी छु. तेम ज गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटीए आ ग्रन्थना संपादनने उत्तेजन आपी, ते हाथप्रतो मेळवी आपवा प्रबंध कयों हतो; ते माटे ते संस्थाना प्रमुख अने संचालकनो हुँ आभार मानुं छु. बाकीनां उद्धरणो लेवामां, एक या बीजी रीते मुद्रित प्रन्थो ज उपयोगमां आव्या छे. आ बधा य मुद्रित अने अमुद्रित ग्रन्थोनो सविस्तर उल्लेख प्रत्येक उद्धरणनी टिप्पणीमां आपेली प्रस्तावनामां करवामां आवेलो छे. आ उद्धरणोनी समज माटे मूलपाठनी साथे तेनी संस्कृतछाया आपवामां आलेली छे. केटलाक विद्वानो संस्कृतछाया आपवानी पद्धतिथी विरुद्ध छे. तेमनी दलीक ए होय छे जे संस्कृतछायाथी अभ्यासक संस्कृतछायाने प्रधान गणी अपभ्रंशमूलपाठने गौण गणे छे तेथी अपभ्रंशनुं प्रधानत्व लुप्त थाय छे. परंतु आ दलील भ्रान्तिमूलक छे; कारण के अभ्यासक अपभ्रंशनी ज जिज्ञासाथी अभ्यासमां प्रवर्ते छे, ते कारणे तेनी दृष्टि आगळथी अपभ्रंशन प्रधानत्व लुप्त थतुं ज नथी. बीजं, वाक्यसंकलना (Syntax ) अन्य कोइ भाषा करतां संस्कृतमां संपादक सुस्पष्ट रीते बतावी शके छे, अने वाचक सरल अने स्पष्ट रीते तेने समजी पण शके छे.प्रस्तुत पाठावलीनी संस्कृतछाया अपभ्रंशनी वाक्य-संकलनाने बहुधा अनुसरे छे. अपभ्रंशनी वाक्यसकलना शिथिल अने स्वच्छंदी होवाथी तेनी छायानी संस्कृतभाषा एटली सुदृढ अने चोटदार न होय ए स्वाभाविक छे. अपभ्रंशमूलमां समासना पदनो विग्रह बताववा विग्रहचिह्न (dash) नो प्रयोग करवामां आव्यो छे; ज्यारे उपसमासना पदोनो विग्रह बताववा पूर्णविराम जेवु चिह्न योजवामां आव्यु छे. प्रत्येक उद्धरणनो टिप्पणीनी प्रस्तावनामां कर्ता, कृति, छंद, वस्तुनो सार इत्यादि बाबतोनो विचार करवामां आम्यो छे. टिप्पणीमां पाठपाठान्तरो, शुद्धि ईत्यादिनी खास चर्चा करवामां आवी छे. शब्दकोशनी रचना अर्वाचीन देश्यभाषाओ जेवी के गूजराती, हिंदी, मराठी इ. ने अनुलक्षी करवामां आवी छे. देश्यशब्दोनी खास नोंध लेवामां आवी छे. अपभ्रंशव्याकरणनी रचना तारण
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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