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________________ १३४ महु आसाय थोड वि णासह पुण्णु बहुत इसारखं तिडिक्कउ वि काणणु डहइ महंतु ॥ ६ ॥ वसई तावई छंडु जिया परिहर वसणासत्ति सुक्क संसर्गे हरिया पेक्खह तरु उज्झति ॥ ७ ॥ भोग करहि पमाणु जिय इंदिय म करि स-दप्प हुंति ण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्प ॥ ८ ॥ सणासेण मरंतयहं लब्भइ इच्छिय-लद्धि [ सावयायार सायर-1 इत्थु ण कायउ भंति करि जहिं साहसु तर्हि सिद्धि ॥ ९ ॥ पत्तहं जिन उपसियहं तिहि मि देइ जु दाणु कलाणा पंच लहिवि भुञ्जइ सोक्ख - णिहाणु ॥ १० ॥ दंसण- रहिय-कु- पत्ति जइ दिण्णउ ताहं कु-भोउ खार- घडं अह विडियउ णीरु वि खारउ होइ ॥ ११ ॥ काई बहुत्त संपयई जा किवणहं घरि होइ - णीरु खारिं भरिउ पाणिउ पियइ ण को-इ ॥ १२ ॥ मधु आस्वादितं स्तोकमपि नाशयति पुण्यं प्रभूतं वैश्वानरस्य स्फुलिंगोऽपि काननं दहति महत् ॥ ६ ॥ व्यसनानि तावत् त्यज जीव परिहर व्यसनासक्तिं शुष्कानां संसर्गेण हरिताः प्रेक्षस्व तरवः दह्यन्ते ॥ ७ ॥ भोगानां कुरु प्रमाणं जीव इन्द्रियाणि मा कुरु सदर्पाणि भवन्ति न भद्राः पोषिताः दुग्धेन कृष्णाः सर्पाः ॥ ८ ॥ संन्यासेन म्रियमाणैः लभ्यते इप्सितलब्धिः १५ अत्र न कामपि भ्रांतिं कुरु यत्र साहसः तत्र सिद्धिः ॥ ९ ॥ पात्रेभ्यः जिनोपदिष्टेभ्यः त्रिभ्यः अपि यच्छति यः दानम् कल्याणानि पञ्च लब्ध्वा भुंक्ते सौख्यनिधानम् ॥ १० ॥ दर्शनरहितकुपात्राय यदि दत्तानि तेभ्यः कुभोगः क्षारघटके अथ निपतितं नीरमपि क्षारं भवति ॥ ११ ॥ किं बचा संपदा या कृपणानां गृहे भवति सागरनीरं क्षारेण भृतं पानीयं पिबति न कोऽपि ॥१२॥ २०
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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