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________________ ने प्राकृत के अन्य भी कई भेद बतलाये हैं, परन्तु सब ने महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी को बिना किसी दलील के स्वीकार किया है। वास्तव में ये ही तीनों प्रधान हैं और काव्य-नाटकों में इन्हीं तीनों का समावेश है। अतः ये ही तीन प्रधान प्राकृत हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसा कोई भी नाटक नहीं है जो केवल संस्कृत ही में हो और उसमें प्राकृत न हो। नाटकों में कुलीन, श्रेष्ठ तथा शिक्षित पुरुष संस्कृत भाषा का व्यवहार करते हैं तथा कुलीन और शिक्षिता स्त्री शौरसेनी में गद्य तथा महाराष्ट्री में पद्य का व्यवहार करती हैं। मतलब यह कि साधारण बात-चीत तो शौरसेनी में और कुछ गान आदि महाराष्ट्री में करती हैं। शौरसेनी गद्य की तथा महाराष्ट्री पद्य की भाषा है। किसी भी नाटक अथवा प्राकृत के काव्यग्रन्थ में गद्य . महाराष्ट्री में और पद्य शौरसेनी में दृष्टिगोचर नहीं होते। नाटकों में निम्न लोगों की तथा नीच वर्गों की बोली मागधी भाषा में पाई जाती है। नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत के महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी ये तीन प्रकार ही प्रधान हैं और इन्हीं का व्यवहार अधिकता से पाया जाता है। इनके अतिरिक्त और भी आवन्ती, ढक्क, शाबरी, प्राच्या और चाण्डाली भाषायें देखने में आती हैं, परन्तु कई आचार्यों के मत से आवन्ती और प्राच्या शौरसेनी के तथा ढक्क, शाबरी और चाण्डाली मागधी के अन्तर्गत हैं । केवल विक्रमोर्वशीय में कुछ पद्य अपभ्रंश के भी आये हैं। इसके विषय में कुछ लोगों का कहना है कि अपभ्रंश के वे पद्य पीछे से जोड़े गये हैं। महाराष्ट्री भाषा का नाम महाराष्ट्र के नाम पर पड़ा। महाराष्ट्र की भाषा महाराष्ट्री कहलाई। इसमें अक्षरों का लोप बहुत होता है, इसलिए इसका व्यवहार पद्य के लिए उत्तम माना गया। इसमें अक्षरों का इतना लोप होता है कि भाषा की जटिलता बढ़ जाती है इसलिए इसका गद्य समझना बड़ा कठिन होता है। इस भाषा के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है।
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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