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________________ प्रथम अध्याय ११ (२४) 'दिश्' और 'प्रावृष्' शब्दों के अन्तिम व्यञ्जनों के स्थान में 'स' आदेश होता है । जैसे-दिसा,* पाउसो (दिक, प्रावृट् ) (२५) 'आयुष' और 'अप्सरस' के अन्त्य व्यञ्जनों का 'स" आदेश विकल्प से होता है । जैसे—दीहाउसो, दीहाऊ, अच्छरसा, अच्छरा() (अप्सराः) (२६) ककुभ शब्द के अन्त्य व्यञ्जन का ह आदेश होता है। जैसे—कउहा (ककुप्) (२७) धनुष् शब्द के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान में ह आदेश विकल्प से होता है । जैसे-धणुहं, धणू (धनुः) । (२८) अन्त्यम्' का अनुस्वार होता है। जैसे-जलं, फलां, वच्छं, गिरिं पेच्छ (जलम् , फलम् , वत्सम् , गिरिम् , प्रेक्षस्व)। RAI.35/२०१५ ** फुरइ फुरिअट्टहासं उद्धपडित्ततिमिरं मिव दिसा-अकं । रावण १.५ + दिसाण पाउस-किलत्ताण। (दिशां प्रावृटक्लान्तानाम् ।) कुमा० पा० १.६ * दीहाऊ वि अदीहाउसमाणी सइ विवेइ-जणो । ( दीर्घायुरपि अदीर्घायुर्मानी सदा विवेकिजनः। ) कुमा० पा० १. १०. जीअ-विढत्तच्छरसं। रावण० १३. ४७ () गअण-णिराअ-भिएण-घण भेसि अच्छरेहिं । रावण ० ७. ४५ 0 कुसुमधणू धणुहधरो कउहा-मुह-मण्डणम्मि चन्दमि । (कुसुमधनुर्धनुधरः ककुम्मुखमण्डने चन्द्रे । ) कुमा० पा० १. ११ . .
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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