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________________ प्राकृत व्याकरण (१३) व्यञ्जनघटित स्वर से व्यञ्जन का लोप हो जाने पर जो स्वर बँचा रह जाता है उसे प्राकृत के वैयाकरण लोग 'उद्वृत्त' कहते हैं । कोई भी 'उद्वृत्त' स्वर किसी भी स्वर के साथ सन्धि कार्य को नहीं प्राप्त करता है । जैसे—– गन्ध-उडिं ( गन्धकुटीम् ), निसारो ( निशाचरः ), रयणीरो ( रजनीचर: ) विशेष :― कहीं कहीं इस नियम के प्रतिकूल उद्वृत्त स्वर का दूसरे स्वर के साथ सन्धिकार्य विकल्प से होता है । और कहीं कहीं सन्धि अवश्य होती है। विकल्प से जैसे सुरिसो, सूरिसो (सुपुरुषः ); नित्य जैसे – चक्काओ (चक्रवाकः ), सालाहणो ( सातवाहनः ) (१४) 'तिपू' आदि प्रत्ययों के स्वर किसी भी स्वर के साथ सन्धि कार्य प्राप्त नहीं करते हैं । जैसे - होइ इह ( भवतीह ) ( १५ ) किसी स्वर वर्ण के पर में रहने पर उसके पूर्व के स्वर ( उद्वृत्त अथवा अनुवृत्त) का वैकल्पिक लुक होता है । जैसे - तिस ( त्रिदश ) के सकार के आगेवाले कार ( अनुवृत्त) का 'ईसो' ( ईशः ) के ई के पर में रहने पर गया। और ई के मिल जाने से 'ति सीसो' हुआ । वैकल्पिक होने के कारण 'तिस ईसो' भी होता है । इसी प्रकार ‘राउलं' ( उद्वृत्त अस्वर का लुक ) और राम-उलं (राजकुलम् ) भी जानना चाहिए 18 * तुलना कीजिए -- अण्णावश्रणुक्कण्ठो ( श्राज्ञावचनोत्कण्ठः ) अभि० शा०, २ . ), सलिल से संभमुग्गदो ( सलिल सेकसंभ्रमोद्गतः ) अभि० शा०, २ . ।
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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