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________________ एकादश अध्याय . २२३ (५६ ) अपभ्रंश में कुत्र के स्थान में केत्थु और अत्र के स्थान में एत्थु रूप होते हैं। जैसे:-केत्थु ( कुत्र); एत्थु' (अत्र) (६०) अपभ्रंश में (परिमाणार्थक) यावद् और तावद् के स्थान में जेवड और तेवड रूप विकल्प से होते हैं। इसी प्रकार (परिमाणार्थक) इयत् और कियत् के स्थान में एवड और केवड रूप विकल्प से होते हैं। जैसे:-जेवडु अन्तरु रावण रामह तेवडु अन्तरु पट्टण-गामह (यावदन्तरं रावणरामयोः तावदन्तरं पत्तन ( पट्टण) ग्रामयोः) एवं एवडु अन्तरु ( इयत् अन्तरम् ); केवडु अन्तरु ( कियत् अन्तरम् )। (६१) अपभ्रंश में परस्पर के स्थान में 'अवरोप्पर' रूप होता है। जैसे:-अवरोप्परु जोअन्ताहं सामिउ गञ्जिउ जाहं ( परस्परं युद्ध थमानानां स्वामी पीडितः येषाम् )। (६२) अपभ्रंश में कादि (क+आदि) व्यञ्जनों में स्थित ए और ओ एवं पदान्त में वर्तमान उं, हुं, हिं और हं का लघु उच्चारण किया जाता है। जैसे:-अनु जु तुच्छउँ तहें धणहे; बलि किजउँ सुअणस्सुः दइउ घडावइ वणि तरुहुँ; तरहुं वि वक्कलु; खग्ग विसाहिउ जहिं लहहुं; तणहँ तइज्जी भङ्गि न वि ।। ___(६३) प्राकृत के नियमानुसार जहाँ म्ह हुआ हो उसका ( म्ह का ) अपभ्रंश में म्भ होता है । जैसे:-संस्कृत में ग्रीष्मः, प्राकृत में गिम्हो और अपभ्रंश में गिम्भो रूप होते हैं। (६४ ) अपभ्रश में अन्याहश शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइस ये आदेश होते हैं । जैसे:-अन्नाइसो, अवराइसो ( अन्यादृशः)। १. इन उदाहरणों के लिए इसी अध्याय के नियम ५७ की पादटिप्पणी २ देखो।
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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