SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनकर, नेमिनाथ प्रभु के सन्मुख खडे रहकर स्तुति करता है। 'हे अनंत ! जगन्नाथ! अव्यक्त! निरंजन! चिदानंदमय! और त्रैलोक्यतारक ऐसे स्वामी! आप जय को प्राप्त हों, हे प्रभु ! जंगम और स्थावर देह में आप सदा शाश्वत हैं, अप्रच्युत और अनुत्पन्न हैं, और रोग से विवर्जित हैं। देवताओं से भी अचलित हैं, देव, दानव और मानव से पूजित हैं, अचिन्त्य महिमावंत हैं, उदार हैं, द्रव्य और भाव शत्रुओं के समूह को जीतनेवाले हैं, मस्तक पर तीन छत्र से शोभायमान, दोनों तरफ चामर से विंझे जाते, और अष्टप्रातिहार्य की शोभा से उदार ऐसे, हे विश्व के आधार! प्रभु! आपको नमस्कार हो!' भावविभोर बनकर स्तुति करने के बाद रत्नसार श्रावक पंचांग प्रणिपात सहित भूतल को स्पर्श कर अत्यन्त रोमांचित होकर, साक्षात् श्री नेमिनाथ प्रभु को ही देखता हो, उस तरह उस प्रतिमा को प्रणाम करता है। उस समय उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर अंबिका देवी क्षेत्रपाल देवताओं के साथ वहाँ आकर और रत्नसार श्रावक के गले में पारिजात के फूलों की माला पहनाती है। बाद में रत्नसार श्रावक कृतार्थ होकर स्वजन्म को सफल मानकर सौराष्ट्र की भूमि को जिनप्रासादों से विभूषित कर सात क्षेत्रों मे संपत्ति स्वरूपबीज को बोनेवाला, वह परंपरा से मोक्षसुख का स्वामी बनेगा। सज्जनमंत्री के दृढतापूर्वक, निर्भय भरे जवाब से महाराज पल दो पल में ठंडे हो गये। अपने निरर्थक गुस्से के लिए उनको पश्चाताप होने लगा। पूरे दिन नगरवासियों के मुँह से मंत्री की कार्यकुशलता और राजकार्य की खुले दिल से प्रशंसा सुनी, साथ में सज्जनमंत्री के द्वारा बनवाये गए जिनालय के सुदंर जिर्णोद्धार के बारे में भी सुना। सूर्यास्त के समय महाराज ने मंत्री को बुलाकर सुबह गिरनार गिरिवर पर आरोहण करने की अपनी भावना व्यक्त की। मंगलमय प्रभात में महाराज और मंत्री गिरिवर आरोहण कर रहे थे, उस समय शिखर पर शोभित धवलचैत्य और 68 त्रितीर्थी
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy