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________________ थे। उसी काल में सोरठ देश की धन्यधरा पर कांपिल्य नामक नगर में रत्नसार नामक धनिक श्रावक रहता था। अचानक 12 वर्ष तक दुष्काल का समय आया। पशु तो क्या मानव भी पानी के अभाव से मरने लगे। उस समय आजीविका की तकलीफ होने से धनोपार्जन करने के लिए रत्नसार श्रावक देशान्तर घूमते घूमते काशमीर देश के नगर में जाकर रहने लगा। स्थान बदलते ही अपने प्रचंड पुण्योदय से दिन प्रतिदिन अपार धन कमाने लगा। संपत्ति को सद्कार्य में लगाने के उद्देश्य से श्री आनंदसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में सिद्धाचल, गिरनार आदि महातीर्थों का पैदल संघ यात्रा का प्रयाण किया। संघ श्री आनंदसूरीजी गुरु की निश्रा में सिद्धाचल सिद्धगिरि के दर्शन करके रैवतगिरि महातीर्थ के समणीय वातावरण में गत चौबीसी और वर्तमान चौबीसी के बाईसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान के निर्वाण स्थली की सिद्धभूमि की सुवास लेने लगा। सहसाम्रवन में भगवान के केवलज्ञान स्थल पर विराजित प्रतिमा की पूजा कर रत्नसार श्रावक और संघ पहाडी पर शिखर की तरफ आगे बढने लगे। इस समय रास्ते में जाते हुए सभी ने छत्रशिला को नीचे से कंपायमान होते हुए देखा। रत्नसार ने तुरंत ही अवधिज्ञानी गुरु आनंदसूरि जी से छत्र के कंपन होने का कारण पूछा तो, गुरु ने अवधिज्ञान के सामर्थ्य से कहा- 'हे रत्नसार! तेरे द्वारा इस रैवतगिरि तीर्थ का नाश होगा और तेरे द्वारा ही इस तीर्थ का उद्धार होगा।' जिनेश्वर परमात्मा का शासन जिसके रोम रोम में बसा था, वह रत्नसार श्रावक इस महातीर्थ के नाश में निमित्त बनने के लिए कैसे तैयार हो ? रत्नसार श्रावक अत्यन्त खेद के साथ दूर रहकर ही वंदन कर वापस जा रहे थे। तब गुरु कहते हैं, 'रतन ! इस तीर्थ का नाश तेरे द्वारा होगा, इसका अर्थ तेरा अनुसरण करनेवाले श्रावकों के द्वारा होगा। तेरे द्वारा तो इस तीर्थ का उद्धार होगा। इसलिए खेद मत कर।' यह सुनकर रत्नसार श्रावक उत्साहपूर्वक मंदिर के मुख्य द्वार से मंदिर मे प्रवेश करता है। हर्ष गिरनार तीर्थ
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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