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________________ कर तथा भक्तिपूर्वक प्रभु का पूजन कर वे वहाँ रत्नमय वेदिका पर बैठे। वहाँ बैठकर इधर-उधर देखते हुए भरतेश्वर ने ध्यानस्थित, प्रशांत और तपस्वी, ऐसे एक मुनि को देखा। तब उन्हें प्रणाम करके और उन्हें पहचान कर विनोदपूर्ण सुंदर वाणी में भरतराजा ने उन महात्मा से कहा, 'हे भगवन् ! आप विद्याधर थे और मेरे साथ युद्ध करने को उत्सुक होकर नमि-विनमि के साथ आए थे; क्या यह आपको याद आता है? फिर भी अब सब प्राणियों पर आपकी ऐसी करूणापूर्ण वृत्ति हो गई है; तो ऐसे वैराग्य का आपके निकट क्या कारण बना है? वह कृपाकर आप मुझे फरमावें।' उस समय अपने वैराग्य का हेतु जानने की इच्छा वाले भरत नरेश्वर से मुनि ने कहा, 'जब मैं तुम्हारे साथ युद्ध करने आया था उस समय नमि-विनमि और मैं तुम्हारे द्वारा जीत लिए गए थे। उसी से वैराग्य प्राप्त कर तत्काल ही अपने पुत्र को राज्य प्रदान कर मैंने प्रभु के पास जाकर चारित्र ग्रहण किया। तब से आज दिन तक श्री युगादि प्रभु की मैं नित्य सेवा करता हूँ। दोनों लोक में साम्राज्य प्रदाता इन देवाधिदेव की सेवा कौन नहीं करेगा?' विद्याधर मुनिवर ने इस प्रकार कहा तब भरत चक्रवर्ती ने उनसे पूछा, 'भगवान् ! इस समय पिता श्री ऋषभदेव भगवंत कहाँ विराजते हैं?' ___ इधर बहुलि देश के अधिपति बाहुबलि ने भरत के आने की सूचना पाकर अपने सिंहनाद के साथ भेरी का नाद करवाया। दूसरी ओर भरत नरेश ने सुषेण को अपनी सेना का सेनापति बनाया। इसके बाद सेना में दूत भेजकर सभी राजाओं को और सूर्ययशा आदि अपने सवा करोड़ पुत्रों को बुलवाया। एक-एक का नाम लेकर बहुमानपूर्वक बुलाकर जैसे वैमानिक देवों को इंद्र शिक्षा देता है वैसे उन्हें शिक्षा देना आरंभ किया। इतने में तो मानो ऋषभदेव स्वामी के दो पुत्रों का परस्पर युद्ध देखने का इच्छुक हो वैसे सूर्य शीघ्रता से उदयाचल की चोटी पर आया। शत्रुञ्जय तीर्थ
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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