SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राज्य प्रदेश में रहने वाला प्रत्येक प्रजाजन विशेष उत्साह से भरा है। सच ही अपने स्वामी की शक्ति से उत्पन्न हुए गुण वैसे ही होते हैं।" दूत के ये वचन सुनकर भरतराजा ने कहा, मेरा छोटा भाई बाहुबलि शत्रुरूपी तृण में अग्निरूप है, यह मैं जानता हूँ। मैं उसके साथ युद्ध करने योग्य कठोर ऐसा विरोध नहीं करूंगा, क्योंकि सब देशों में घूमने पर भी अपना बंधु किसी स्थान पर नहीं मिलता है। पुरुष को संपत्ति, राज्य और अन्य सब कुछ हर स्थान पर मिल जाता है, किंतु भाग्य के बिना सहोदर कहीं भी नहीं मिलता। जैसे दान बिना धन, नेत्र विहीन मुख और आमात्य विहीन राज्य वृथा है, वैसे ही बंधु विहीन यह समस्त विश्व वृथा है। वह धन निधन (मृत्यु) समान है और जीवन अजीवन है। जिस घर में गोत्र घात से प्राप्त हुई लक्ष्मी विलास करती है, उस लक्ष्मी का पति पतित है और वह राजतेज भी शोभित नहीं होता। 'यह निःसत्व है' इस प्रकार लोग कदाचित मुझ पर हँसें तो अवश्य हँसें, मैं फिर भी अपने इस छोटे भाई बाहुबलि के साथ युद्ध नहीं करूँगा।" "यद्यपि श्री युगादि प्रभु के पुत्र होने से क्षमा करना आपको शोभता है। और फिर इस प्रकार क्षमा करने से आपका बांधव-स्नेह भी अपूर्व जान पड़ता है। किन्तु चक्रवर्ती पद हेतु दिग्विजय का अधूरा कार्य पूरा करने हेतु युद्ध आवश्यक है", भरत नरेश्वर को मंत्रियों ने यह सुझाव दिया। सुषेण सेनापति भी विशेष रीति से भरत नरेश्वर को बाहुबलि से युद्ध करने के लिए कहने लगे। इससे भरत नरेश्वर ने युद्ध प्रयाण सूचित करने में सफल, ऐसी भेरी का नाद करवाया। उसके नाद से सब राजा तत्काल एकत्र हो गए। फिर शुभ दिन को चक्रवर्ती ने स्नान कर, शुद्ध उज्ज्वल वस्त्र पहन, उत्तम पुष्पों से श्री युगादि प्रभु की भक्तिभाव पूर्वक पूजा की। तत्पश्चात् भरत नरेश ने वांछित अर्थ की सिद्धि के लिए पौषधागार में रहे मुनियों के पास जा कर उनकी शत्रुञ्जय तीर्थ 33
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy