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________________ ६२ जैनधर्मसिंधु. वस्तु, रूप्प, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुष्पद नवविध परिग्रह ता नियम उपरांत वृद्धि देखी मूलगें संदेप न की धो. माता, पिता, पुत्र, स्त्रीतणे लेखे की धो. परिग्रह परिमाण लीधुं नहीं, लेइने पढिनं नहीं. पढिनं विसायुं. अ लीधुं मेल्युं. नियम विसस्या | पांचमे परिग्रह परिमाणव्रत विषयि अनेरो जे कोइ प्रति चार पद दिवसमांदि० ॥ ५ ॥ हें दिपरिमाणव्रते पांच प्रतिचार ॥ गम स्सय परिमाणे ॥ ऊर्ध्वदिशि, अधोदिशि, तिर्यग दिशियें जावा प्रववातणा निमम लेइ नांग्या. नानोगे विस्मृत लगे अधिक जुमि गया. पाठवणी याघी पाठी मोकली. वढाण व्यवसाय कीधो. वर्षाकालें गामतरू कीधुं, जु मिका एकगमा संखेपी, बीजीगमा वधारी ॥ बहे दिगपरिमाणव्रतविषयि नेरो जे कोइ तिचार पद दिवसमांदि० ॥ ६ ॥ सात में जोगोपोग विरमण व्रतें जोजन श्री पांच प्रतिचार ने कर्महुँती पंदर तिचार एवं वीश अतिचार ॥ सच्चित्तेप डिब दे० ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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