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________________ G०ए अष्टमपरिछेद. अनंत जव जमते थके श्रदत्त ग्रहण कियाहो क्रोधा दि करके सो त्रिकोटीसें मिथ्याऽष्कृतहो ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके। ___“॥ जं मए अणंतेणं जवनमणेणं दिवं माणुस्सं तिरिक्षं मेहुणं सेविअं कोहेण वा माणेण वाण शेष पूर्ववत् ॥ जो मेने अनंत नव नमते थके देव संबंधी, मनुष्य संबंधी, तिर्यंच संबंधी, क्रोधादि कसे मैथुन सेवन किया हो सो त्रिकोटी मिथ्या पुष्कृतहो. ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके। ___“॥ जं मए अणंतेणं नवप्रमणेणं अठारस्स पावहाणा कया कोहेण वा, माणेण वा, शेषं पूर्ववत् जो मेने अनंत नव जमते थके अठारह पापस्थानक सेवन किए हो. सो त्रिकोटी मिथ्यामु प्कृत हो ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके । ___“॥ जं मे पुढ विकायगयस्स सिलालेछुसकरास न्हावाबुयागेरिअसुवन्नाश्महाधानरूवं सरीरं पाणि वहे पाणिसंघट्टणे पाणिपीमणे पाववणे मिउत्तपो सणे गणे संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि॥" जो मेराजीव पृथवी कायगत होके शिला पर कांक रे रेती वाबुका मट्टी सुवर्णादि सप्त धातु रूप शरी र वान् होके, प्राणिवध, प्राणि संघात, प्राणि पीमन, पाप वर्धक, मिथ्यात्व पोषक स्थानमे लगा होय
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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