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________________ ०२ जैनधर्मसिंधु. नैवेद्य. दो स्थानमें करके तिनमेंसें एक पात्र जिनके श्रागे स्थापके, श्लोक पढे। सर्वप्रधानसनतं, देहिदेहिसुपुष्टिदम् ॥ अन्नं जिनाग्रे रचितं, कुःखं हरतु नः सदा ॥१॥ यह पढके जलचुलुककरके जिनप्रतिमाको नैवैद्य देवे. पीछे दूसरे पात्रमें चुबुककरकेही, ग्रह दिक्पाला दिकोंको श्लोक पढके नैवेद्य देवे। जोजो सर्वे ग्रहालोक, पालाः सम्यग्दृशः सुराः ॥ नैवैद्यमेतगृह्णन्तु, नवंतो जयहारिणः ॥१॥ स्नात्र करायाविना जी पूजामें जिनप्रतिमाको इसही मंत्रकरके नैवेद्य देना. ॥ पी आरात्रिक मंगलदीपक पूर्ववत् । और शक्रस्तव जी पढना. ॥ जिस प्रतिमाका स्थान स्थितहीका स्नपन कराया जावे, तिसके वास्ते सर्वकुब तहांही करना.॥ __श्रीखंडकर्पूरकूरंगनानि, प्रियंगुमांसीनखकाकतुं डैः ॥ जगत्रयस्याधिपतेः सपर्या, विधौ विदध्यात्कुश लानि धूपः॥१॥ __ इस वृत्तकरके सर्वपूष्पांजलियोंके बिचाले धूपोत् क्षेप करना, और शकस्तवपाठ पढना.॥ प्रतिमा विसर्जनं यथा ॥ “॥ ॐ अह नमो जगवतेईते समये पुनःपूजां प्रतील स्वाहा ॥' इति पुष्पन्यासेन प्रतिमा विसर्जनं ॥ __“॥ झः इंशादयोलोकपालाः सूर्यादयो ग्रहा
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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