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________________ जैनधर्मसिंधु. समवसरणको तीन प्रदक्षणा देवे, पीछे गुरुसंघसहित समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे, पीछे नमस्कारा दिश्रुतस्कंधानुज्ञापनार्थ कायोत्सर्ग करे, एकलोग सकाकाजसग करें, पारके प्रगट लोगस्स कहे. पीछे माला धारण करनेवाला तिसके स्वजनों के साथ प्रतिमाके आगे जाके शक्रस्तव पढके “ श्रणुजा उ मे जयवं रिहा ” ऐसें कहके जिनपदऊपरि पूर्व स्थापित मालाको लेके निजबंधुके हाथमें स्थाप न करके नंदिके समिप श्राय कर, श्राद्ध, मालाको गुरु मंत्रित करावे, । पीछे गुरु खमा होकर उपधा विधिका व्याख्यान करे. सो श्राद्ध जी, खमा होके श्रवण करे. " परमपयपुरिपछि " इत्यादि मालाकी गाथा महिमां दर्शकसें गुरु देशना करे. । तत्तो जिप डिमाए, देसा सुरनिगंबङ्कं ॥ मिला सिदामं, गिरिह गुरुणा सहवे ॥ १ ॥ तस्सोजयखंधेसु, यरोवंते सुद्धचित्ते ॥ निसंदेहं गुरुणा, वत्तवं एरिसं वयणं ॥ २ ॥ जो जो सुलद्ध निजम्म, निचिश्राइ गरुा पुन्नपनार ॥ नारयतिरिक्षगईयो, तुझावस्सं निरुद्धाओ ॥ ३ ॥ नो बंधगोसि सुंदर, तुम मित्तो कयनीगुत्ताणं ॥ नो ल्लो तुह जम्मं, तरेवि एसो नमुक्कारो ॥ ४ ॥ पंचनमुक्कार जावो य जम्मंतरेवि किर तुझ ॥ जाईकुलरुवग्ग, संपयाओ पहाणा ॥ ५ ॥ 996
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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