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________________ जैनधर्मसिंधु तूं धन्य है. सलक्षण है, इत्यादि बोलता हुआ, तिसके मस्तकऊपर वासदेप करे. ॥ ४५ ॥ पीछे जिनप्रतिमाके पूजादेशसे सुरजिगंधसंयुक्त अम्लान श्वेतमाला ग्रहण करके, गुरु अपने हाथों सें तिस उपधानवाहीके दोनों खंधोंऊपर आरोपण करता हुआ, शुभ चित्तकरकेनिसंदेह ऐसा वच न कहे.॥४४॥ अछीतरें प्राप्त किया निज जन्म जिसने, तथा संचय करा है अतिवारी पुण्यका समूह जिसने, ऐसें जो जो जव्य ! तेरी नरकगति, और तिर्यग् गति, अवश्यमेव बंद होगई. हे सुंदर ! आजसे लेके, तूं, अपयस, नीच गोत्रोंका बंधक नहीं है. तथा जन्मांतरमें जी, यह पंचनमस्कार तुझको उर्ल ज नही है. पांच नमस्कारके प्रजावसें जन्मांतरमें जी तुकको प्रधान जाति, कुल, आरोग्य संपदाएं प्राप्त होवेगी. और इसके प्रत्नावसे मनुष्य कदापि संसारमें दास, प्रेष्य, उर्जग, नीच. और विकलें जिय नहीं होते हैं. किं बहुना. जोइस विधिसें इस श्रुतज्ञानको पढके श्रुतोक्त विधिसे शुभ याचा रमें-क्रिमा करे, वे, यदि तिसही जवमें उत्त म निर्वाणको प्राप्त न होवे तो, अनुत्तर अवेयकादि देवलोकोंमें चिरकाल क्रीमा करके उत्तम कुलमें उत्कृष्ट प्रधान सर्वांगसुंदर प्रकट सर्वकला प्राप्त करी
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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