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________________ ७६६ जैनधर्मसिंधु. " ॥ जेा अईया सिद्धा, जेा नविस्सं तिला गए काले ॥ संप का वहमाणा, सवे तिविद्वेष वंदा मि ॥ " इस अंतिमगाथाकी वाचना जी, तीसरी वाचनाके साथही देनी ॥ इतिशक्रस्तवोपधानम् ॥३॥ अथ चैत्यस्तवका उपधान कहते हैं. ॥ नंदिया दिपूर्ववत् । प्रथम दिने एक जक्त, दूसरे दिन उप वास, तीसरे दिन एक जक्त; पीछे श्रेणिकरके तीन चामल करने. अंत में तीनोंही अध्ययनोंकी सम कालें एक वाचना देनी ॥ यथा ॥ “ ॥ श्ररिहंतचेश्श्राणं, करेमि काउस्सग्गं, वंदण वत्तिश्राए, प्राणवत्तिश्राए, सक्कारवत्तिश्राए, सम्माण वत्तिश्राए, बोहिलाजवत्तिश्राए, निरुवसग्गवत्तिश्राए | १ | सकाए, मेहाए, धीईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, माणीए, गमिकाजस्सग्गं । २ । अन्नध्यउस सिए - यावत् - वो सिरामि ॥ ३ ॥ " यह एकही वाचना है. ॥ इति चैत्यस्तवोपधानम् ॥ ४ ॥ अथ चतुर्विंशतिस्तवका उपधान कहते हैं. ॥ नंदि, दो पूर्ववत् । प्रथम दिने एकनक्त, दूसरे दिन उपवास, तीसरे दिन एकनक्त, चौथे दिन उपवास, पांच दिन एकनक्त, बठे दिन उपवास, सातमे दिन एकनक्त । एसें अष्टम तप । अंत में प्रथम गाथाकी एक वाचना. यथा ॥ "" ॥ लोगस्स उमोगरे, धम्मतिथ्ययरे जिये ।
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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