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________________ अष्टमपरिछेद. ७६३ ऐर्यापथिकी (इरियावहियं ) पक्किमके क्षमाश्रमण पूर्वक कहैं. ॥ " ॥ जगवन् नमुक्कारवायणासं दिसावणियं वाय पालेवावशियं वासरकेवं करेह । चेश्याएं च वंदावेद ॥' ऐसें नंदि करके बीसमें दिन एकनक्त करें, वाचना देनी चूलिका के चारों पदोंके सर्व उपधानों में प्रति दिन व्यापार पौषध करना, सवेरे २ पौषध पारके पुनः २ नित्य पौषध ग्रहण करना, और नमस्कार सहस्र गुणना ॥ इतिप्रथममुपधानम् ॥ १ ॥ ऐर्यापथिकीका जी उपधान ऐसेंही है. श्रादिकी, औरतकी, दोनोंही नंदि तिसके- ऐर्यापथिकी के जिलापसें करनी । तदां वाचनामें या अध्ययन, और वाचना दो-एक पांच पदोंकी और दूसरी तीन पदोंकी पांच पदोंकी एक चूलिका ॥ “ ॥ इछामि पडिक्कमितं इरिश्राव हिश्राए विरा हपाए । १ । गमणागमणे । २ | पाणक्कमणे, बी यक्कमणे हरीयक्ककमणे ॥३॥ श्रोसाउत्तिंग पण गदगमट्टी मक्कमासं ताणासंकमणे । ४ । जे मे जीवा विराहिया | ५ | यह एक वाचना, द्वादशम तपके पीछे देते हैं. ॥ १ ॥ " ॥ एगिं दिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिं दिया, पंचिं दिया | ६ | अजिया, वत्तिया, लेसिया, संघाइ या, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, गाओ ठाणं संका मिया, जी वियाश्रो ववरो विया,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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