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________________ . . जैनधर्मसिंधु. दोष नहीं;अर्थात् इन कामोंके लिए हिंसा करनेसें मेरा व्रत नंग न होवे।जल पीनेमें बाणना,अन्यत्र स्नाना दिमें यथाशक्तिः । ४ । इनमें प्रमादके होनेसें, गुरुके वचनसे यह तप करूं; अल्प बहुत नांगेसें, तिससे मेरी विशुद्धि होवे।४ए ॥ इति परिग्रह प्रमाण टिप्पनकविधिः॥ __इन बारह व्रतोंमेंसे को कितनेही व्रत अंगी कार करे, तिसको तितनेही उच्चार करावने । जिस को उ मासिक सामायिक व्रत अरोपतें हैं, तिसका यह विधि है. ॥ चैत्यवंदना, नंदि, क्षमाश्रमणादि सर्वपूर्ववत् सामायिकके अनिलाप करके और विशे षयह हैं; । कायोत्सर्गके अनंतर तिसके हस्तगत नूतन मुखवस्त्रिकाके ऊपर वासदेप करना.। तिसही मुखव स्त्रिकाकरके षट्र (६) मासपर्यंत उन्नयकाल सामायिक ग्रहण करे. । पीछे तीनवार नमस्कारका पाठ करके दंगक पढावे. सयथा ॥ ___“॥ करेमि जंते सामाश्यं, सावज्जं जोगं पच्च कामि, जावनियमं पछुवासामि, मुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाएकाएणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स नंते पमिकमामि, निंदामि, गरिहामि अप्पाणं, वोसि रामि, । से सामाश्ए चउबिहे तंजहा दव खित्त: काल नाव दवणं सामाश्शं पडुच्च, खित्तउणं श्हेव वा अन्नब वा, कालजेणं जाव बम्मासं, नाव
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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